मन समंदर हो चला
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भर कर पीड़ जग का सारा
मन समंदर हो चला
उच्श्रृंखल विकल लहरें
भावावेश में उठती गिरती
तोड़ कर सीमाओं का पाश
तट पर थक पसरती
बूंद - बूंद आलिंगन कर के भी
मन घट रीत चला।
बनते नहीं मेघ अब
नैनों के आकाश में
बेमौसम संतृप्त हुआ
किसी के इंतज़ार में
विस्तृत वीरानगी को तकते
मन बंज़र हो चला।
पनपते नहीं अरमां नए
बीत गए वो तितली दिन
जीवन रंग धूमिल हुआ
बोझल मन तुम बिन
जज़्ब कर अंतर के उन्माद
मन रेतीला हो चला।
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भर कर पीड़ जग का सारा
मन समंदर हो चला
उच्श्रृंखल विकल लहरें
भावावेश में उठती गिरती
तोड़ कर सीमाओं का पाश
तट पर थक पसरती
बूंद - बूंद आलिंगन कर के भी
मन घट रीत चला।
बनते नहीं मेघ अब
नैनों के आकाश में
बेमौसम संतृप्त हुआ
किसी के इंतज़ार में
विस्तृत वीरानगी को तकते
मन बंज़र हो चला।
पनपते नहीं अरमां नए
बीत गए वो तितली दिन
जीवन रंग धूमिल हुआ
बोझल मन तुम बिन
जज़्ब कर अंतर के उन्माद
मन रेतीला हो चला।