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        तुम तक पहुँच पाऊं
दरख्तों को चीरतीं किरणें चपल 
सुमधुर ,सुस्मित कीच बीच कमल 
विवस्त्र द्रुमों में हिलता एक पल्लव 
अलसाई भोर को चीरता  खग - कलरव 
जाने किन - किन रूपों में बसते हो नाथ 
हर पल रहते पास ,फिर भी मैं अनाथ 
कभी तो दरस दिखला जाओ सर्वाधार 
मिट जाए जन्मों का फेर हो एकाकार ।
भर दो भावों की सरिता विमल 
पावन तन से सजाऊँ तेरा आसन निर्मल 
दुःख के बवंडर से न टूटे आस्था 
वंदन में तुम्हारी  नित झुके माथा 
निष्ठुर आशाएँ चाहे जितनी बहलायें 
मृगमरीचिका सी चाहे जितनी झुठलायें 
थाम लेना नाथ जो हो जाऊं विचल 
नेह का दीपक जलता रहे प्रतिपल ।
मोहपाश में जकड़ी यह दुर्बल काया
नासमझ मन जाने नहीं जग की माया 
अथ के साथ रचा है तुमने इति
नश्वर देह से प्रेम छलता है मति 
जाना है छोड़ सब सम्पदा व रिश्ते -नाते 
शाश्वत यह सच ,काश हम अपना पाते 
झुलस जाता है मन उद्वेग - अगन में 
 बरस जाओ पीयूष सा ,रेत की तपन में।
तुम ही हो साधना ,तुम बनाते  साध्य 
तुम हो आराधना ,तुम ही रचते आराध्य 
हर भेद जानूँ, फिर भी अज्ञानी कहलाऊं
भ्रांतियों में लिप्त हूँ ,तभी मानव कहलाऊं 
ईप्साएँ अनंत बंधी हैं हर सांस में 
कैसे विमुक्त होऊं,उपाय किस ध्यान में 
विनत प्रार्थना है नाथ ,विषय - जाल बेध पाऊं 
रोशन कर  तम चित्त का ,तुम तक पहुँच पाऊं।

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