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 नदी - एक निस्तारक 


तुंगकूट की उजली शिलाओं से द्रावित
वारिद की नेह फुहारों से उत्थित 
अपना अस्तित्व मैंने पाया है 
बहती हूँ अनवरत पातर धरा यों 
घनी केशुओं में काढ़ा हो मांग ज्यों 
रुकना कभी न मैंने सीखा  है 
तोड़कर पथ की शिलाओं को 
रौंद कर तृण- द्रुम की शाखाओं को 
पथ  प्रशस्त मैंने किया है 
विकल प्राण की सुधा हूँ 
अधिलोक का आधार हूँ 
हरियाली का मैंने दायित्व उठाया है 
उन्माद तरुणाई का अकल्पित है 
विशाल भूखंड मुझसे सिंचित है 
सृजन का सुख मैंने भोगा है 
दर्पित हूँ अपनी अक्षय उर्जा पर 
तरंगित हूँ आमोद उन्मुक्त चर्चा पर 
जीव -अजीवक को मैंने संतृप्त कराया है 
अन्तकाल की वेदना से नहीं विचलित 
सागर से मिल पूर्णता है अभिलक्षित 
विजित रहूंगी यह मैंने ठाना है 
प्रेरक बन जाए मेरी दृढ़ता 
निहंग जीवन की यही कृतकृत्यता
निस्तारक बन मैंने सार्थकता पाया है 

ANULATA RAJ NAIR  – (2 July 2012 at 10:13)  

सुन्दर....
कल-कल बहती कविता...

अनु

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