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         पगडंडी
द्रुमों की कतार को चीरते 
नदियों के तीरे होते 
एक पगडंडी निकलती है 
जो मेरे गाँव को जाती है ।
अनगिनत पैरों के निशान को 
वर्षों के इतिहास को 
बखूबी समेटती जाती है 
जो मेरे गाँव को जाती है ।
दूर तक फैली धान की बालियाँ 
मंजरों से लदी आम की डालियाँ
सुगंध इनकी हवा में समाती है
जो मेरे गाँव को जाती है।
चिड़ियों की चहचहाहट से
चूड़ियों की खनखनाहट से
एक मधुर स्वरलहरी जगती है
जो मेरे गाँव को जाती है ।
बैलों के गले की घंटियाँ बजतीं
पनघट पे जाने को सुंदरियां सजतीं
एक मदमस्त पवन बहती है
जो मेरे गाँव को जाती है ।
सावन में बूंदें बरसती हैं
झूलों की रस्सियाँ बंधती हैं
एक सौंधी खुशबू उड़ती है
जो मेरे गाँव को जाती है ।
बहुत प्यारा है मेरा गाँव
दिल ढूंढता वही बरगद की छाँव
पगडंडी वह बार - बार बुलाती है
जो मेरे गाँव को जाती है।

ANULATA RAJ NAIR  – (27 July 2012 at 04:11)  

बहुत सुन्दर....
सौंधी सी महक लिए हुए रचना....

अनु

रविकर  – (27 July 2012 at 04:51)  

उत्कृष्ट प्रस्तुति |
बधाई स्वीकारें ||

रविकर फैजाबादी

D.C.Gupta
STA, Department of Electronics Engg.
Indian School of Mines
Dhanbad
M: +918521396185

अरुन अनन्त  – (28 July 2012 at 01:09)  

बेहद सुन्दर कविता पढ़ कर मन हर्षित हो उठा.

( अरुन शर्मा = arunsblog.in )

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