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मैं और  तुम
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शहर  के शोर  - गुल से दूर
स्याह अँधेरे में
जब दुनिया होती है
नींद के आगोश में    
तब मिलते हैं
मैं और तुम।
कोई बंदिशें नहीं ,शिकवा नहीं
बावफा हम नहीं ,बेवफा भी नहीं
तज़ुर्बों से सीखा है
हर चाहत पूरी नहीं होती वरन्
क्या चाँद फलक पे होता ?
बगावत करके अपनों से
कोई  एक  ही  तो मिलता
चाहे तुम ,चाहे  वे
या कोई भी नहीं
पर हमने निभायी है दुनियादारी
देखो ,कितना महफूज़ रखा है तुम्हें
अपने ख्यालों - ख्वाबों में
बिन रोक - टोक  के ,अनवरत
जब तक साँसें चलेंगी
मिलते रहेंगे
मैं और  तुम।  

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