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         पगडंडी
द्रुमों की कतार को चीरते 
नदियों के तीरे होते 
एक पगडंडी निकलती है 
जो मेरे गाँव को जाती है ।
अनगिनत पैरों के निशान को 
वर्षों के इतिहास को 
बखूबी समेटती जाती है 
जो मेरे गाँव को जाती है ।
दूर तक फैली धान की बालियाँ 
मंजरों से लदी आम की डालियाँ
सुगंध इनकी हवा में समाती है
जो मेरे गाँव को जाती है।
चिड़ियों की चहचहाहट से
चूड़ियों की खनखनाहट से
एक मधुर स्वरलहरी जगती है
जो मेरे गाँव को जाती है ।
बैलों के गले की घंटियाँ बजतीं
पनघट पे जाने को सुंदरियां सजतीं
एक मदमस्त पवन बहती है
जो मेरे गाँव को जाती है ।
सावन में बूंदें बरसती हैं
झूलों की रस्सियाँ बंधती हैं
एक सौंधी खुशबू उड़ती है
जो मेरे गाँव को जाती है ।
बहुत प्यारा है मेरा गाँव
दिल ढूंढता वही बरगद की छाँव
पगडंडी वह बार - बार बुलाती है
जो मेरे गाँव को जाती है।

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आ गयी बदरिया

किरणों ने अवशोषण कर नीर समुद्र का
सजाया है श्वेत - श्याम श्रृंगार नभ का
 विरह अगन धधकाने आ गयी बदरिया
दूत बन जाओ मेघ बड़ी लम्बी है डगरिया

पिया बिसार कर सुध ले रहे सुख - छाँव
उड़ जाओ उस प्रदेश ,बैठे हैं वो जिस गाँव
स्मृतियों का डेरा है पलकों पे ,क्या करूँ सांवरिया
मन के घाव भरते नहीं कि कुहुक जाती है कोयलिया

बेध जाता है हिरदय को टेसू का अवहास
पपीहा जलाता दिल को ,नीरस लगे मधुमास
दिवस है ठहर गया ,आतप की वो दुपहरिया
जाने कब बह जाती है नैनों की कजरिया

धूप ने खूब चिढ़ाया शरद की ठिठुरन में
दीवारों का कर अवसंजन जलती विरहन में
आर्तनाद छलनी करता मन की दुअरिया
छा जाती है जब रात की खामोश चदरिया

चौखट पे नैनन ठौर साया जो दिख जाए तुम सा
कासे कहूँ दिल का हाल ,होश भी रहता गुम सा
यायावर पवन पहुंचा दे पैगाम उस नगरिया
उड़ रहा वक़्त लगा पंख ,गुजर रही उमरिया


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लहरों की कहानी 


सागर की बेशुमार जलराशि में 
लहर बनकर जीता हूँ 
दिन - रात की जद्दोजहद में 
ज़रा न शिकन लाता हूँ ।
चाँद छूने की जहमत में 
उठ -उठ कर गिरता हूँ 
बेमिशाल इस प्यार में 
हर रात पागल कहलाता हूँ ।
उठती है जब तूफां दिल में 
आक्रोश तट पे निकालता हूँ 
कितने ही जनजीवन चपेट में 
अनायास ही ले लेता हूँ ।
प्रौढ़ नदियों की थकान में 
मिलनसुख की तड़प है 
नभ के निहुरते सूनेपन में 
मेरे आलिंगन की ललक है ।
आरज़ू है दिल के कोने में 
काश चाँद आकर बस जाता 
क्षितिज की लालिमा में 
अक्स हमारा दिख जाता ।
प्रेम की अधूरी अभिलाषा में 
जीवन सर्वस्व लुटाया हूँ 
परपीड़ा भर अपनी झोली में 
कलंक खारा का पाया हूँ ।

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     मेरे बिन 


खूबसूरत लम्हों में हम जीने का बहाना ढ़ूँढ़ते हैं 
आवारा बादल बन तुम मेरे बदन को छू लेते हो 
हसीं वादियों की पहलु में हम बीता कल तलाशते हैं 
शोख पवन बन तुम मेरे केशुओं को बिखेर देते हो 
बारिश की रिमझिम फुहारों में हम सुकून ढ़ूँढ़ते हैं 
इन्द्रधनुष बन तुम मुझे मोहपाश में फाँस लेते हो 
अनगिनत उपादानों में हम तुम्हारा बिम्ब तलाशते हैं 
 उपालम्भों का ले सहारा तुम मुझे निष्पंद कर देते हो 
फिजां की खुशबुओं में हम अपना अस्तित्व  ढ़ूँढ़ते हैं 
आंधी बन कर तुम मुझे जाने कहाँ उड़ा देते हो 
चाँद की अक्स में हम अपना वजूद तलाशते हैं 
अश्कों को  मेरी तुम ओस की बूंद कह देते हो 
प्रकृति से कर तारातम्य हम नवजीवन ढ़ूँढ़ते हैं 
रूह बन उनकी तुम मेरे आस -पास मँडराते हो 
तुम बिन जीना एक ख्वाब में हम ढाल लेते हैं 
पर ख्वाबों की चोरी करना तुम खूब जानते हो 
फासले अपने दरम्यां हम जितनी भी बना लेते हैं  
मुझे पता है तुम अपनी नींद में मुझे पाते हो 
अपने - अपने अहम् की सीमाओं में जकड़े होते हैं 
बिन मेरे साथ के भला तुम कहाँ करार पाते हो 


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 नदी - एक निस्तारक 


तुंगकूट की उजली शिलाओं से द्रावित
वारिद की नेह फुहारों से उत्थित 
अपना अस्तित्व मैंने पाया है 
बहती हूँ अनवरत पातर धरा यों 
घनी केशुओं में काढ़ा हो मांग ज्यों 
रुकना कभी न मैंने सीखा  है 
तोड़कर पथ की शिलाओं को 
रौंद कर तृण- द्रुम की शाखाओं को 
पथ  प्रशस्त मैंने किया है 
विकल प्राण की सुधा हूँ 
अधिलोक का आधार हूँ 
हरियाली का मैंने दायित्व उठाया है 
उन्माद तरुणाई का अकल्पित है 
विशाल भूखंड मुझसे सिंचित है 
सृजन का सुख मैंने भोगा है 
दर्पित हूँ अपनी अक्षय उर्जा पर 
तरंगित हूँ आमोद उन्मुक्त चर्चा पर 
जीव -अजीवक को मैंने संतृप्त कराया है 
अन्तकाल की वेदना से नहीं विचलित 
सागर से मिल पूर्णता है अभिलक्षित 
विजित रहूंगी यह मैंने ठाना है 
प्रेरक बन जाए मेरी दृढ़ता 
निहंग जीवन की यही कृतकृत्यता
निस्तारक बन मैंने सार्थकता पाया है 

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