मैं शबरी बन जाऊं
मेरे अंतर्मन का महाकाश
बाँध लो मुझे अपने पाश
झेल चुकी जग का उपहास
जब तुम न होते आस - पास ।
शून्य की प्रतिध्वनि हुंकार भरती
मन - प्राण विछिन्न हो विवशती
निराकाश से मुरली की तान निकलती
निस्तत्व प्राण में चेतना उमड़ती ।
विलय कर संशय का अतिरेक
मधुमय जीवन का कर अभिषेक
इहलोक में ईश्वरत्व का हो भान
मर्त्यमान जीवन में अनुराग का गान ।
विश्व के अधिष्ठाता एक है पुकार
राग - रंग के बंधन से हो उद्धार
प्रियत्व बन पथ प्रशस्त करो देव
निस्सार जीवन का सार बनो गुरुदेव।
उत्कर्ष अभिप्राय हो जीवन मंत्र
जिसमे न क्लेश न द्वेष का तंत्र
चराचर के बंधन से मुक्त हो जाऊँ
तुम बन जाओ राम मैं शबरी बन जाऊँ ।
भक्ति रस की अनच से भाव बोध से समर्पण के संसिक्त रही यह रचना .... .कृपया यहाँ भी पधारें -
शनिवार, 11 अगस्त 2012
कंधों , बाजू और हाथों की तकलीफों के लिए भी है का -इरो -प्रेक्टिक
भक्तिपूर्ण रचना !
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कविता विकास
काव्य वाटिका
मोहपाश में जकड़ी जकड़ी, कड़ी कड़ी हरदिन जोडूं |
बिखरी बिखरी तितर-बितर सब, एक दिशा में कित मोडूं |
रविकर मन की गहन व्यथा में, अक्श तुम्हारे क्यूँ छोडूं-
यादें तेरी दिव्य अमानत, यादों की लय न तोडूं ||
अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने इस अभिव्यक्ति में ...आभार
भक्ति रस का सम्पूर्ण आनद लिए ... भाव मय प्रस्तुति ... लाजवाब ...
मित्रों ,आपकी टिप्पणियों से ही ताक़त मिलती है और आगे बढ़ने की प्रेरणा ....सदा ये कृपा बनाये रखें
शबरी बनना है नहीं, इतना भी आसान।
रामचन्द्र के नाम से, शबरी की पहचान।।
भक्ति रस से ओत-प्रोत सुंदर भाव, सुंदर रचना !
mayank bhai aur shivnath ji ko sadar aabhar