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  मैंने मर - मर कर जीया है 


बेशुमार शिकायतों को सीने में दबाए
 नफ़ीस मुस्कान को मैंने गले लगाया है ।
अपनी हज़रत को नज़र ना लग जाए 
हर झरोखे पे मैंने पर्दा चढ़ाया है ।


बहारें टिकी हैं मौसम के मिज़ाज पे 
मेरे बहार का ठौर मैंने तुममे पाया है ।
तुम्हारे दो पल के साथ की आरज़ू में 
कितनी रातें मैंने आँखों  में बिताया है ।


पर काट परिंदे को छोड़ दिया उड़ने को 
हाशिये पर रह मैंने अस्तित्व संभाला है ।
तुम उधेड़ते रहे जीवन के पन्ने को 
समेटने में उन्हें मैंने उम्र गुज़ारा है ।


शब्दों के तीर चलते ज़माने की चर्चाओं में 
हर ज़ख्म को मैंने फूल मानिंद सहेजा है ।
तुम्हारी बुलंदियों का राज़ है मेरी मन्नतों में 
हर मज़ार पर मैंने चादर चढ़ाया है।


मुज़तर कर  रम गए प्यार के व्यापार में 
घूँट ज़हर का मैंने अमृत सरीखा पीया है ।
तुम्हारी फंतासी दुनिया के तिलस्म में 
कितनी बार मैंने  मर - मर कर जीया है ।



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  यह भी बीत जायेगा 


निष्प्राण और निःशक्त टहनियाँ 
झेलती हैं साल दर साल गर्मियां। 
धरा के विकीर्ण ताप से जलती 
विवसन होने का अभिशाप झेलती ।
निराश न होतीं ,जानती हैं क्योंकि 
यह दुर्दिन भी बीत जायेगा ।


एक तू ही है अकेला ,नासमझ मन 
चाहता है केवल सुख का सघन वन ।
विचरता रहे खुशियों का पकड़ हाथ 
आशाओं का दीप जलता रहे साथ ।
मगरूर न हो ,चेत जा क्योंकि 
यह सुदिन भी बीत जायेगा ।


सलिला का उमड़ता , उफनता यौवन 
दिवामणि को विसर्जित करती मौन ।
कुम्हला कर रहती बस पानी की एक लकीर 
पर न रोती  ,न कोसती अपनी तकदीर ।
जीवट  है बड़ी ,जानती है क्योंकि
 यह उत्ताप काल भी बीत जायेगा ।


दुःख का झोंका जब विघात  करता 
विकल प्राण को जीवन वितथ लगता।
हर उच्छ्वास में समुत्थान खोज जीव 
विजीष की आकांक्षा को बना नींव ।
श्रिय ही होगा ,विचेत ना क्योंकि 
यह उरस काल भी बीत जायेगा ।

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               जीवन दर्शन 


धरती की कोख से फूटता अक्षय अंकुर 
मधुमय कोष का प्रतीक ,पर जीवन क्षणभंगुर ।
अथ के साथ रचा इति ,क्या मोह ,क्या विरक्ति 
अंतश्चेतना जो प्रदीप्त होता ,क्यूँ पालता कोई आसक्ति ।


विरस पतझड़ से अभिशप्त तरुवर 
कर लेता है हरे परिधान का श्रृंगार ।
अजस्र औदार्य से दमकता हर शाख 
कातर था कल ,आज भाग्यदशा पर है साख ।


खग का कलरव विदीर्ण करता उषाकालीन नीरवता 
ऋत्विज  सा कर प्रभाती गान ,जागरण संदेश बिखेरता ।
रात हो चाहे कितनी लम्बी ,सुबहा अवश्य आती 
उपज्ञा यह अनंत ऊर्जामयी प्रकृति रोज़ सुनाती।


आसमाँ के ऋद्ध में है भावतुल्य रंगों का समावेश  
अंगार बरसाता दिवामणि ,सहलाता रात को ऋछेश।
इस अलौकिक नीलाभ का एक टुकड़ा मेघ बन जाओ 
बंज़र न हो धरित्री ,अमृत वर्षिता बन जाओ ।


अंतहीन तृषा के समंदर में डूबता - उतराता जीव 
उत्तुंग है ,विच्छिन्न पड़ा ,श्रीहीन होता मानो निर्जीव ।
उपपल दल को देखो ,पंक में उद्भाषित हो रहा उल्लसित
साँसों का ऋण चुका मानव ,कर स्वयं को पल्लवित ।

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मेरा अस्तित्व 

आँधियों के वेग से अब डर नहीं लगता 
आवेश का हर क्षण इसका प्रतिरूप होता ।
कुछ ने बर्बाद किया ,कुछ से जोड़ा नाता 
अमिट आघात उपहार बन मिल जाता


पात हूँ डाल से जुदा, पर हवाओं ने हार मानी
उड़ा न पाया साथ अपने, मेरी प्रगल्भता पहचानी ।
बुला रहा हर शाख ,जब न उड़ने न सूखने की ठानी 
मुझसे बनता नीड़ है, मेरी अस्मिता सबने पहचानी ।

आज बेरौनक सी लगती ,कल उत्साह जगाती
जज़्बातों के अनगिनत रंगों में तू नहाती ।
ऐ जिंदगी ,पल - पल का लेखा - जोखा तू सजाती 
जाने किस रूप में कौन मिल जाए ,खूब बहलाती ।

दुःख की बदली नहीं मैं ,धरती सा अस्तित्व मेरा 
नाप सका न कोई सीमाएँ मेरी ,ऐसा व्यक्तित्व मेरा ।
मेरी ख़ामोशी में तूफां है ,उर में बहती प्रेम धारा
आग में तपकर कुंदन बनी ,आँखों में ब्रह्माण्ड सारा ।

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   ख्वाहिशें 


कभी घिर जाऊँ जीवन के झंझावात में 
तुम चुपके से राह दिखा देना 
बंदिशें लगी हैं पग -पग में 
मिलने की तरकीब बता देना ।
आँगन के सुनसान कोने में 
अपनी रोशनी बिखरा देना 
खो जाऊँ गर दुनिया की भीड़ में 
धुँधली यादों में पहचान लेना ।
ख्वाहिशों की अनगिनत परतों में 
झाँक सको तो झाँक लेना 
जो बातें बयां न हो लफ़्ज़ों में 
झुकती पलकों से जान लेना। 
बगावत की ठान ली मन में 
बलिष्ठ बाँहों का सहारा दे देना 
साथी,उल्फत के निःशब्द तरानों में 
अहसास के फूल बटोर लेना ।
चाँद की रात हो रूमानी फिज़ां में 
तुम सेहरा बाँध आ जाना 
देख लेना गर दरवाज़े की ओट में 
चंद फूलों की महक बिखेर देना  ।

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