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  यह भी बीत जायेगा 


निष्प्राण और निःशक्त टहनियाँ 
झेलती हैं साल दर साल गर्मियां। 
धरा के विकीर्ण ताप से जलती 
विवसन होने का अभिशाप झेलती ।
निराश न होतीं ,जानती हैं क्योंकि 
यह दुर्दिन भी बीत जायेगा ।


एक तू ही है अकेला ,नासमझ मन 
चाहता है केवल सुख का सघन वन ।
विचरता रहे खुशियों का पकड़ हाथ 
आशाओं का दीप जलता रहे साथ ।
मगरूर न हो ,चेत जा क्योंकि 
यह सुदिन भी बीत जायेगा ।


सलिला का उमड़ता , उफनता यौवन 
दिवामणि को विसर्जित करती मौन ।
कुम्हला कर रहती बस पानी की एक लकीर 
पर न रोती  ,न कोसती अपनी तकदीर ।
जीवट  है बड़ी ,जानती है क्योंकि
 यह उत्ताप काल भी बीत जायेगा ।


दुःख का झोंका जब विघात  करता 
विकल प्राण को जीवन वितथ लगता।
हर उच्छ्वास में समुत्थान खोज जीव 
विजीष की आकांक्षा को बना नींव ।
श्रिय ही होगा ,विचेत ना क्योंकि 
यह उरस काल भी बीत जायेगा ।

RITU BANSAL  – (28 May 2012 at 09:51)  

वाह बहुत खूब !

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