मैंने मर - मर कर जीया है
बेशुमार शिकायतों को सीने में दबाए
नफ़ीस मुस्कान को मैंने गले लगाया है ।
अपनी हज़रत को नज़र ना लग जाए
हर झरोखे पे मैंने पर्दा चढ़ाया है ।
बहारें टिकी हैं मौसम के मिज़ाज पे
मेरे बहार का ठौर मैंने तुममे पाया है ।
तुम्हारे दो पल के साथ की आरज़ू में
कितनी रातें मैंने आँखों में बिताया है ।
पर काट परिंदे को छोड़ दिया उड़ने को
हाशिये पर रह मैंने अस्तित्व संभाला है ।
तुम उधेड़ते रहे जीवन के पन्ने को
समेटने में उन्हें मैंने उम्र गुज़ारा है ।
शब्दों के तीर चलते ज़माने की चर्चाओं में
हर ज़ख्म को मैंने फूल मानिंद सहेजा है ।
तुम्हारी बुलंदियों का राज़ है मेरी मन्नतों में
हर मज़ार पर मैंने चादर चढ़ाया है।
मुज़तर कर रम गए प्यार के व्यापार में
घूँट ज़हर का मैंने अमृत सरीखा पीया है ।
तुम्हारी फंतासी दुनिया के तिलस्म में
कितनी बार मैंने मर - मर कर जीया है ।
bahut badhiya kavita jee....
anu
मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
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शुक्रवारीय चर्चा मंच ।
स्त्री का जीवन ऐसे ही-देने,मांगने में ही बीत जाता है।
कितनी अच्छी कविता....
सादर।
dhanywad mitron ,aabhar ,aapke duaon ka hi yah natiza hai .