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  मैंने मर - मर कर जीया है 


बेशुमार शिकायतों को सीने में दबाए
 नफ़ीस मुस्कान को मैंने गले लगाया है ।
अपनी हज़रत को नज़र ना लग जाए 
हर झरोखे पे मैंने पर्दा चढ़ाया है ।


बहारें टिकी हैं मौसम के मिज़ाज पे 
मेरे बहार का ठौर मैंने तुममे पाया है ।
तुम्हारे दो पल के साथ की आरज़ू में 
कितनी रातें मैंने आँखों  में बिताया है ।


पर काट परिंदे को छोड़ दिया उड़ने को 
हाशिये पर रह मैंने अस्तित्व संभाला है ।
तुम उधेड़ते रहे जीवन के पन्ने को 
समेटने में उन्हें मैंने उम्र गुज़ारा है ।


शब्दों के तीर चलते ज़माने की चर्चाओं में 
हर ज़ख्म को मैंने फूल मानिंद सहेजा है ।
तुम्हारी बुलंदियों का राज़ है मेरी मन्नतों में 
हर मज़ार पर मैंने चादर चढ़ाया है।


मुज़तर कर  रम गए प्यार के व्यापार में 
घूँट ज़हर का मैंने अमृत सरीखा पीया है ।
तुम्हारी फंतासी दुनिया के तिलस्म में 
कितनी बार मैंने  मर - मर कर जीया है ।



ANULATA RAJ NAIR  – (31 May 2012 at 00:18)  

bahut badhiya kavita jee....

anu

रविकर  – (31 May 2012 at 20:01)  

मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
--
शुक्रवारीय चर्चा मंच

शिक्षामित्र  – (31 May 2012 at 23:29)  

स्त्री का जीवन ऐसे ही-देने,मांगने में ही बीत जाता है।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib')  – (1 June 2012 at 03:33)  

कितनी अच्छी कविता....
सादर।

kavita vikas  – (1 June 2012 at 09:15)  

dhanywad mitron ,aabhar ,aapke duaon ka hi yah natiza hai .

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