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                      स्त्री 

जीने का सलीका सीखने वाली 
परिवार की धुरी बन जिलाने वाली 
स्त्री ,कितने रूपों में तुमने जीया है ?
बेटी बन कर बाबुल की गोद में फुदकती 
घर - आँगन की शोभा तुमसे सजती 
तुम सौभाग्य का प्रतीक बन जाती 
और एक दिन अपने ही चौखट के लिए 
परायी बन जाती 
फिर आरम्भ होता तुम्हारा नवावतार
चुटकी भर सिंदुर की गरिमा में 
बलिदान कर देती अपना अस्तित्व 
अन्नपूर्णा बन बृहद हो जाता व्यक्तित्व 
दुःख की बदली में तुम सूर्य बन जाती 
हर प्रहार की ढाल बन जाती 
और जिस दिन वंश तुमसे बढ़ता 
तुम स्त्रीत्व की पूर्णता को पाती 
माँ की संज्ञा पाते ही वृक्ष सा झुक जाती 
ममता ,माया ,दुलार एक सूत्र में पिरोती 
तुम ही लक्ष्मी ,तुम ही सरस्वती होती 
बेटी ,पत्नी और माँ  को जीते - जीते 
तुम जगदम्बा बन जाती 
इतने रूपों में भला कोई ढल पाया है ?
एक ही शरीर में इतनी आत्माओं को
 केवल तुमने  ही जीया है ।
पर कितनी शर्मनाक बात है ,
 अपनी ही कोख में तुम मार दी जाती हो !!!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’  – (9 September 2012 at 09:48)  

वाह!
आपके इस उत्कृष्ट प्रवृष्टि का लिंक कल दिनांक 10-09-2012 के सोमवारीय चर्चामंच-998 पर भी है। सादर सूचनार्थ

रविकर  – (9 September 2012 at 22:00)  

स्त्री
काव्य वाटिका



ना री नारी रो नहीं, पूजेगा संसार ।

सच्ची पूजा देवि की, अब होगी हर वार।

अब होगी हर वार, वार जो होते आये ।

कुंद हुई वह धार, वक्त सबको समझाए ।

त्याग तपस्या प्रेम, पड़ें पुरुषों पर भारी ।

सब रूपों को तिलक, सभी से आगे नारी ।।

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