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ग़ज़ल
                        ज़र्रा - ज़र्रा नम है
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दिन -रात आँखों में ख्वाब होते हैं
कमाल - ए - इश्क  लाजवाब होते हैं ।

अहसास बन जो रूह में उतरते हैं
सिहरनों में उनकी हम ढलते जाते हैं ।

अक्स तुम्हारी खुशबू बन महकती है
संभाले कोई, हम तो निढाल हुए जाते हैं ।

बार - बार ख़त लिख कर फाड़ डालते हैं
इश्क की परीक्षा में इसलिए उलझते जाते हैं ।

राख़ पर चल दें हम तो वो भी सुलग जाए
हुस्न ऐसा बेमिसाल कि मगरूर हुए जाते हैं।

धुआँ- धुआँ है आसमां ज़र्रा - ज़र्रा नम  है
एक मदहोश  है ,एक पानी -पानी हुआ जाए ।

बेतरतीब है आलम ,क्या दिन क्या रात
फिसलती ज़ुबां पर होती सिर्फ हमारी बात ।

अब तो बदनामियों से भी  डर नहीं लगता है
लगता है इश्क के उस मुकाम को हमने पा लिया है ।


           

अरुन अनन्त  – (20 September 2012 at 00:14)  

बेहतरीन ग़ज़ल खास इस ये शेर तो लाजवाब है,
राख़ पर चल दें हम तो वो भी सुलग जाए
हुस्न ऐसा बेमिसाल कि मगरूर हुए जाते हैं।

अरुन = arunsblog.in

रविकर  – (20 September 2012 at 02:43)  

मस्त मस्त है गजल यह , किसका कहें कमाल ।

खुश्बू जो पाई जरा, हुवे गुलाबी गाल ।

हुवे गुलाबी गाल, दिखे प्यारे गोपाला ।

काले काले श्याम, मुझे अपने में ढाला ।

बहुरुपिया चालाक, शाम यह अस्तव्यस्त है ।

वो तो राधा संग, दीखता बड़ा मस्त है ।।

sangita  – (20 September 2012 at 10:20)  

जब बदनामियों के दर पर काबू हो जाये तभी इश्क हुआ समझिये ,सुपर पोस्ट

अरुण चन्द्र रॉय  – (25 September 2012 at 12:01)  

"राख़ पर चल दें हम तो वो भी सुलग जाए
हुस्न ऐसा बेमिसाल कि मगरूर हुए जाते हैं।"...यही तो है सच्ची ख़ूबसूरती... बढ़िया ग़ज़ल...

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