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स्पर्श प्यार का


  दिल में आशियाँ बनाने वाले ,काश ऐसा होता 
कभी सैर के बहाने ही आते ,दिलासा तो मिलता ।
बादलों संग आँख मिचौली खेलना ,चाँद की फितरत 
जी चाहता है पहलु में छुपा लूँ ,तुमसे न होऊँ रुख़सत।


प्यार के परवान में पिंजर भी है मंदिर बन जाता 
हर्ष में हिलोरें लेता मन ,कभी विषाद में गहराता ।
ज़हर पीता है कोई ताउम्र ,कोई आँखों में बसता
यही है जीवनाधार ,चारदीवारी से कहाँ घर बनता ।


प्यार के रंगों की अपार विस्तार में है दुनिया 
कोई खुशबुओं का जहाँ कहता ,कोई आग का दरिया ।
कोई चाँद में हूर ढूंढता है ,कोई इबादत का ज़रिया
बड़ी कशमकश है ,कहीं अमावस कहीं चांदनी दुधिया ।


स्पर्श प्यार का अक्षुण्ण ,अमिट, शाश्वत है 
अनुभूतियों का सागर कहीं खारा कहीं मीठा है ।
आरजुओं के समंदर में तैरते सभी ,लिए सहारे अनेक 
अंगारों पे चलना भी भाता ,बेपर उड़ता हरेक ।


आ जाओ  तुम पयोद बन ,पीयूष बरसाओ
छा जाओ मेरे आकाश में ,ना अब तरसाओ।
देखो बन गयी हूँ  मैं ऊसर ,निष्प्राण धरा
सोंधी महक उड़ाती कर दूँगी चितवन हरा ।

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वो टूटता तारा


                                                    


पलकों की चिलमनों में थे हम  बैठे 
जाने कब आँखों की किरकिरी बन उठे ।
दोस्तों की महफ़िल बड़ी बेमानी लगती 
सहानुभूति उनकी ज़ख्मों को हरा कर देती 


यादों की हर चिराग को हमने बुझा दिया 
तुम्हारी खतों को मोमबत्ती की लौ चढ़ा दिया ।
सोच लिया ,तुम भी गुज़रे ज़माने की बात थे 
दुनिया की भीड़ में शामिल एक नसीर थे ।


आज कुछ सूखी पंखुरियाँ मिल गयी किताबों में 
और वो मोर पंख जिसे सहलाते थे गालों  में ।
कौंध गयी एक पहचानी सी सिहरन रगों में 
चाँद भी मुस्कुरा रहा था कुछ खास शोखियों में ।


अन्तरिक्ष  की परिधि को चीरता टूटा एक सितारा 
मूंदे हुए नैनों में दिखा मेरी आँखों का तारा ।
सोचा था ,तुमसे जुड़ी हर शमां बुझ गयी है 
फिर जाने कौन सा सुराख़ हवा देती रही है ।


शाम का धुंधलका अब अकेले नहीं आता 
जज़्बातों की एक लम्बी फेहरिस्त साथ लाता।
मुस्कान में दर्द उमड़ता और दर्द में अश्क छलकता 
भला कैसे मिलती अपनेआप  से ,जो वह तारा न टूटता ।


तुम्हें भूलने के उपक्रम में ,मेरा अस्तित्व मिटता गया 
यों किताबों में जिल्द चढ़ती है ,मैंने भी आवरण चढ़ा लिया ।
ज़माने का दस्तूर निभाते हुए ,हर गम दरकिनार कर दिया 
एक नफ़ीस मुस्कान की चादर से चेहरे को ढांक लिया ।

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सुखसागर मैं बन जाऊँ


                                         
  भुवन -भास्कर मेरे ,तुम्हारी सतरंगी रश्मियों का 
एक पुँज मैं बन जाऊँ ,
समस्त दिशाओं  में नहीं ,केवल एक छत का 
अँधियारा हर ,रोशन मैं कर जाऊँ ।


हुंकार भरते पयोद प्यारे ,तुम्हारी संचित नीर की 
एक बूँद मैं बन जाऊँ ,
पूरी वसुधा नहीं ,केवल एक गज ज़मीं की 
सुधा बन ,मैं प्यास बुझाऊँ ।


उन्मादी बलखाती तटिनी ,तुम्हारी जोशीली शक्ति की 
एक धारा मैं बन जाऊँ ,
सम्पूर्ण धरा नहीं ,केवल मरू की छाती का 
सिंचन कर ,मैं हरियाली लाऊँ ।


ब्रह्मांड सा विस्तार हमारी अनंत इच्छाओं का 
एक लघुपद ही उठा पाऊँ ,
दीर्घ छलांग नहीं ,केवल इर्द - गिर्द परिसर का 
सुखसागर मैं बन जाऊँ ।

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चुनौती


                चुनौती

मानव तुम्हारी कल्पना , बहुत गहरी और प्रशस्त
उतार लाओ इसे जीवंत ,बन जाओ सशक्त
तोड़कर शिला बना लो पथ ,प्रवाह नदी का मोड़ दो
फाड़कर हृदय गगन का ,गर्भ धरा का चीर दो ।

आयें विपदा असंख्य ,चाहे मार्ग हो जाएँ अवरुद्ध
हो न कभी निराश ,तुम हो जीव प्रबुद्ध ।
खड़ा हिमालय दे रहा चुनौती छू  लो मेरे ताज को
तुम वीर , अंजनिपुत्र ,रोक लो हवा के वेग को ।

कहते हैं सबल का साथ सभी देते
नहीं कोई निर्बल का गुण गाते ।
एक कदम तुम बढाओ मानव ,फासले न रहें शेष
क़ैद हो जाए आकाश मुट्ठी में ,भाग्य न होता विशेष ।

तुम रहो अग्रसर निरंतर ,कर्म को मान आधार
जीव तुम ब्रह्मपुत्र  हो ,शक्ति तुममे अपरंपार।
ठान लो मन में तो ,दशाएँ  नक्षत्र की बदल जाएँ
देव कहाँ फिर स्वर्ग में ,वे तो ज़मीं पर आ जाएँ

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तुम नज़्म मेरी


                         तुम नज़्म मेरी    

 लताओं सी नाज़ुक यादें जब गहराने लगती हैं
 फि़ज़ां की खुशबू कुछ जानी पहचानी सी लगती है ।
ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
वेदना ,शब्द बन पन्नों पर उतर जाती है ।
अल्फाज़ जो लब पर आते नहीं हैं
सिसकियों से नाता जोड़ लेते हैं ।
उम्मीदों के पुल जब ध्वस्त हो जाते हैं
अश्क गले से घूँट बनकर उतरते हैं ।
नदी का दो पाट बनना, जी को  डराते हैं
बूँदों को संजोकर चलो, मेघ बन जाते हैं  ।
मेरी ख़ामोशी में टिकी है सब्र की नींव
नाज़ुक है ,झेल नहीं सकती आवेश तीव्र ।
चाहे आदेश समझो या मान रख लो अर्ज़ का   
तुमसे ही बँधी साँस  तुम इलाज मेरे मर्ज़ का ।
दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।

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लक्ष्य

         

             लक्ष्य

रवि को स्वयं की आग में
जल - जल कर ठंडक तलाशते
मैंने देखा है ।
जलधि को अपनी ही गहराई में
डूबते - उतराते तट तलाशते
मैंने देखा है ।
अम्बर को अपने ही विस्तार में
झुल-झुल कर सतह तलाशते
मैंने देखा है ।
भावनाओं के समंदर से उबरते
विचारों के मंथन से निकलते
मैंने जान लिया है -
मानव मात्र निमित्त है।
स्व की खोज में निहित विधि है 
अपने अस्तित्व  की पहचान लक्ष्य है 

यही सबसे बड़ी निधि है ।

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