शाम के धुंधलके का पहला तारा
रात के अंतिम पहर तक, थका - हारा
तुम प्रहरी बन सामने टिके रहते हो
खिड़की से बस मुझे झांकते रहते हो ।
कुछ तो है जो तुम कह नहीं पाते
आग इधर की, क्यूँ समझ नहीं पाते
मन में एक हुलक सी उठती है
खामोश मुलाकात बड़ी खलती है ।
तुम्हारे हौसलों ने अरमानों को पंख दिया
अंगारों पर चलना मैंने सीख लिया
लताओं सी कोमल, झेलती हर प्रहार
सब्र का ना लो इंतहा,जोड़ लो उर तार।
इक इक पल ,इक -इक साल लगता है
कभी - कभी तो वक़्त भी ठहर जाता है
बड़ी कशमकश है ,अजीब तपिश है
दूर रहूँ तो पास आने की कशिश है।
मेरी धड़कनों में नाम है बस तुम्हारा ही
रुसवाई कैसी, रुसवा हूँ तो तेरे नाम से ही
जिस बात को कहने में शब्द अटक रहे हैं
वो बात ज़माने वाले बखूबी कह रहे हैं ।
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