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           फलक पर 

तुम्हें फलक पर  ले जाऊँगा 
चाँद - तारों के बीच बसाऊंगा
एक ऐसी दुनिया जहाँ तिरोहित होंगे 
हर बाधा - प्रतिबन्ध  ।
उस आकाशगंगा को इंगित करते 
तुम्हारे शब्द अमृत घोल रहे थे 
मैंने तो फलक पे अपना 
ताजमहल भी देख लिया था ।
जो तुमने मेरे जीते -जी बनाया था 
तब क्या पता था प्यार की नींव 
बलुवाही मिट्टी पे टिकी है 
विश्वास को डगमगाते देर न लगी 
और तमाम आरोप - प्रत्यारोपों  की आँधी
ध्वस्त कर गयी वो ताजमहल 
सब दफ़न हो गए वो वादे ,इरादे 
और प्यार करने वाली दो आत्माएँ।
मेरी किताबों में रखी लाल गुलाब की पंखुरियाँ
सुख कर भी महकती हैं 
शायद हमारे खुशनुमा पलों की एकमात्र निशानी 
अब भी हमारे वजूद को जी रही हैं ।

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    •               मन

      मन तू बड़ा बावला है
      ज़माने के दस्तूर को कर दरकिनार
      अपना ही आयाम रचता है
      कभी आवारा बादल बन जाता है
      कभी आँखों की कोर से बह जाता है ।
      मन तू थोडा सरस भी है
      समय की आँधियों में उड़ा नहीं है
      रिश्तों की उपालंभों से मरा नहीं है
      जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा नहीं है
      अब भी वहाँ प्यार का अंकुर खिलता है
      जो किसी को सँवार सकता है
      किसी के लिए बिखर सकता है ।
      मन तू कितना बेबस है
      चाह कर भी हँस नहीं सकता
      जज़्बातों की ज्वालामुखी में अंतर्धान
      अपनी मर्ज़ी से फट भी नहीं सकता
      और तो और ,मुस्कुराने से पहले
      आस - पास का जायजा लेता है ।
      मन तू शातिर भी कम नहीं
      भीड़ भरे रास्तों में गुदगुदाता है
      एकांत में टीसें मारता तड़पाता है
      बार - बार उनके ख्यालों से उकसाता है
      और ,जो उठा लूँ कलम लिखने को ख़त
      शब्दों में स्वयं ढल जाता है ।
      मेरा हमराज ,तू आज़ाद पंछी है
      पिंजरबद्ध हो ही नहीं सकता
      चलो ,तुममें ही विलीन हो जाऊं
      हर उस मुकाम तक पहुँच जाऊं
      जहाँ सशरीर न जा पाऊं ।

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पारिजात बहक जाएँ

बारिशों आज थमना रात भर
आये हैं वो बड़े तलब से मेरे शहर
मेघों से नीर ले लो अगले बरस का
रुक कर चुका जाएँ वो उधार मुद्दत का
हवाओं तुमसे ज़रा तेज बहने की गुज़ारिश है
बहारों के शबाब में मेरे अक्स की नुमाइश है
कि बेमौसम खिल उठे पारिजात बहक जाएँ
खुशबुओं से लबरेज फिजां क़यामत ढा जाएँ
सुना है मेरी गली से आज वो गुजरने वाले हैं
मेरी दीवारों पर शीशे के कतरे लगे हैं
या खुदा मेरी आँखों को झपकने देना
हर कतरे की मूरत मेरे ज़ेहन में उतार देना
साँसों की रफ़्तार में तरन्नुम सजने लगी
बेवज़हा होंठों पे तबस्सुम थिरकने लगी
एक बार उनकी नज़रें इनायत हो जाएँ
मुद्दतों की ख़लिश पल भर में मिट जाए।

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 वह  सर्वज्ञ है

उस सर्वेश्वर सत्य की खोज में 
जब -जब जूझती हूँ 
एक अखंडित मृग मरीचिका में 
उलझती जाती हूँ ।
तुम अद्वितीय ,अनंत ,अनुपम हो 
पर किसने देखा है यह रूप तुम्हारा,
जब तुम निराकार ,अजन्मा कहलाते हो ?
जानती हूँ जैसी अनुभूति वैसी मूर्ति ।
हर विधा में ढल जाते हो 
कहीं धुंध को चीरती किरण हो 
कहीं तिमिर को भेदती बाती हो 
कहीं राधा के किशन हो 
कहीं मीरा के श्याम हो 
सुना है हर युग में तुम्हारा पदार्पण
 भक्तों की निरीह पुकार पे हुआ है ।
पाप का बोझ जहां बढ़ा 
तुम तारण को आ जाते हो ।
द्रौपदी को तारने वाले सुदर्शन प्रिय 
नहीं हो रहा क्यों आज जग का श्रिय?
कितनी द्रौपदियां लुट रहीं यत्र - तत्र हैं
विछिन्न मन- प्राण घायल सर्वत्र है 
पाप का आवरण हो रहा घना है ।
 अब तो आ जाओ नाथ 
धवल चाँदनी सा सहला जाओ 
द्वंद्व नहीं कोई तुम्हारे अस्तित्व पर 
पर निर्द्वंद्व भी नहीं 
छोड़ दिया है नाव बिन पतवार के 
चाहे थाम लो चाहे बहने दो धार में 
जिस घड़ी ठहर जाऊं बिन ह्रास के 
समझ जाऊं वह  सर्वज्ञ है पास में ।

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तुम सावन मैं बदली 

सावन जब - जब तुमने चाहा
मैं बदली बन जाती हूँ 
निःशब्द मौन निमंत्रण में तुम्हारे 
आत्म - विसर्जन कर जाती हूँ ।

बारिश की मोतियाँ चुन कर 
जीवन अपना सरस बना लेते  हो 
मन की सुखी डालों पर पुष्पित कर 
मुझे निःशेष बना देते हो ।

मास दर मास कैसे बीते बताओ ज़रा 
विरह अगन में छोड़ दिया जलने को 
अगले बरस तक तपा कर धरा 
पुनः बदली बन बरसने को ।

एक जुस्तजू है सावन पिय की 
भूल न जाना मुझे लम्बी दूरियों में 
बेमौसम देखो जब एक टुकड़ी बादल की
 समझ लेना रात बीती है अँखियों में ।

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  वो उड़ चली है 

मेरे लिए 
घड़ी की सुइयाँ स्वतः नहीं चली हैं
 वार्डन ने तय किया था पैमाना
 कहाँ जाऊं,क्या करूँ ,कब आऊँ 
फिर भी इस बंधन को खूब जीया है
कोई शिकवा नहीं ,कोई गम नहीं 
शायद उतनी सी परिधि में 
अपना आकाश तलाशा था 
दरवाज़ों नहीं खिड़की से झाँका था  
एक ही दिशा को क्षितिज माना था 
इसी बुनियाद पर व्यक्तित्व की इमारत गढ़ी
अपरिमित भावों के सागर में 
डूबते - उतराते जब थक गयी 
तो कविता मुखर होने लगी 
मेरी तरह छंदों के दायरे में बँधी
कभी लगता भावों की कसमसाहट में 
दम तोड़ रही है कविता  कुलबुलाहट में 
फिर भी वह गीत बन उतरती रही 
जाने - अनजाने होंठों पे सजती रही 
पर अब मैंने ठान लिया है 
अपनी संवेदनाओं को छंदबन्द्ध नहीं रखूंगी 
 पिंजरे के बाहर की दुनिया उसे देखने दूंगी 
पूरे गगन में बाँहें फैलाये उड़ने दूंगी 
और देखो ....वो उड़ चली है ...।

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 तुम  एक जुनून हो 

 कुछ खुशगवार लम्हों की महक 
साँसों में समां सीने तक उतर गयी है 
महफूज़ है  वह अहसास जिसकी  लहक 
सुलगा कर बदन तर - बतर कर गयी है ।

शब्दों में बहुत ढाला प्यार को 
फिर भी कविता नहीं बन पाई है 
लगता है उस अधूरेपन की कसक को 
खुदा ने भी खूब आजमाई है ।

आसमां की अरुणाई का नील रंग 
मेरे अश्क को तुममे संजोया है 
विलग कैसे हो सकता भला एक अंग 
जब दो रूहों ने साथ साथ साँसें बटोरा है ।

वो जिज्ञासा ,पिपासा और तन्हाई की रात 
बेतरतीब हैं आलम ,तुम एक जुनून हो 
सलवटें बता रहीं हैं करवटों की बात 
मेरी नज्मों की तुम मज़मून हो  ।

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     मैं शबरी बन जाऊं

मेरे अंतर्मन का महाकाश 
बाँध लो मुझे अपने पाश 
झेल चुकी जग का उपहास 
जब तुम न होते आस - पास ।
शून्य की प्रतिध्वनि हुंकार भरती
मन - प्राण विछिन्न हो विवशती
निराकाश से मुरली की तान निकलती 
निस्तत्व  प्राण में चेतना उमड़ती ।
विलय कर संशय का अतिरेक 
मधुमय जीवन का कर अभिषेक 
इहलोक में ईश्वरत्व का हो भान
मर्त्यमान जीवन में अनुराग का गान । 
विश्व के अधिष्ठाता एक है पुकार
राग - रंग के बंधन से हो उद्धार 
प्रियत्व बन पथ प्रशस्त करो देव 
निस्सार जीवन का सार बनो गुरुदेव।
 उत्कर्ष अभिप्राय हो जीवन मंत्र
जिसमे न क्लेश न द्वेष का तंत्र 
चराचर के बंधन से मुक्त हो जाऊँ
तुम बन जाओ राम मैं शबरी बन जाऊँ ।

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                  ठुकरा दिया  मैंने खुदा

बंद आँखों पे समझना न नींद का कहर 
धुंधला न जाएँ सपने सो पलकें गयीं हैं ठहर ।

खो गए हो दुनिया की भीड़ में छोड़ मेरा दामन
वक़्त थम गया ,बहारें रूठ गयीं छोड़ मेरा आँगन ।

हम तो बैठे हैं पहलु में भूल हर खता को 
किस गुनाह की सजा देते हो भूल मेरी सदा को ।

जीने का बहाना मिल गया उलझनों में तलाशते रास्ता
 वरन् फूल भरी जिंदगी के छलावे से होता बस वास्ता ।

अब भी खड़े हैं हम वहाँ रास्ते जहां से हुए जुदा 
इक तेरी सूरत के वास्ते ठुकरा दिया मैंने खुदा ।

मिल जाओ गर भागती जिंदगी की जद्दोजेहद में 
अजनबी सा ठिठक जाना पहचानी सी आहटों में ।

ढेर सारी यादों को देकर भूल जाने कहते हो 
मानों सागर में मिली अश्कों को ढूंढ़ लाने कहते हो ।

आपकी बेरुखी ने मुझे आपका कायल बना दिया
 आपकी तसव्वुफ़ से रेगिस्तान में सहरा बना दिया ।

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             मन का पंछी 


चाँद का तन्हा सफ़र कैसे देखूँ
अक्स उसकी बेचारगी का कैसे झेलूँ
कोई तो रंग बिखेर दे अमा की रात 
 निराकाश में छेड़ दे प्रेम की बात ।


प्यार नहीं बंधा है रिश्तों की रेखाओं में 
नर्म कोहरा अहसास का व्याप्त रूहों में 
लांघ कर उम्र और काल की सीमाओं को 
चलो थाम लें प्यार के नए फंसानों को ।


छूटता अपनों का साथ ,जुड़ जाते बेगाने 
मन तू आज़ाद पंछी किधर उड़े क्या जाने 
आज इस मुंडेर पे नाच रहा  है भर थिरकियां
कल उसकी वीरानगी पे भर रहा था सिसकियाँ ।


हृदय की नीरवता में तुमने कलरव मचाई 
तिमिर का कर नाश ,सुबहा नई दिखाई 
अब न जाना छोड़ जग के चपल वार में 
डूबते का तिनका बन जाना मझधार में ।


हर संवेदना को शब्दों की डोर में बाँध
 आओ उतार दें हर सच्चाई निर्बाध
यकीनन जो बात होंठों तक नहीं आती है 
पन्नों पर आसानी से उतर जाती है  ।




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  पुरुष तुम बुनियाद हो 

अर्चिमान हो तुम अधिलोक का 
पौरुष और पराक्रम का मिसाल हो 
गौरव है सूर्य यों प्राची का 
तुम भी कुल का अभिमान हो I
आदिकाल से तुम जग में 
इतिहास शौर्य का रचते आये 
अतुल्य बल है तुम्हारी रग में 
धरोहर नित नयी गढ़ते आये I
पुरुष तुम बुनियाद सृष्टि के 
पर भागीदारी मेरी कमतर क्यों 
जीवन यात्रा बिन दो पहिये के
 भला सोच लिया कैसे क्यों I
अजातशत्रु अवश्य गरूर इतना पर 
कि बन बैठे हमारे भाग्य विधाता 
नारी की अहमियत दरकिनार कर 
बन गए हमारे पूर्ण निर्माता I
समय आ गया पहचानो सत्य को 
बिन स्त्री अस्तित्व है अधुरा 
चाँद बिन रात के सौन्दर्य को 
चकोर ने  भी है धिक्कारा I
तुम भावों के अपरिमित भण्डार हो 
पल में गरजते पल में बरसते
सुख - शांति का आधार हो 
 बाधाओं को काट लेते हँसते - हँसते I
विशय नहीं हमारे प्रियत्व पर 
दुःख की बदली हो या सुख की छाँव
टूट  जाये जब अहम् का भूधर
 झेल लेंगे हम काल का हर दाँव I

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