वह सर्वज्ञ है
उस सर्वेश्वर सत्य की खोज में
जब -जब जूझती हूँ
एक अखंडित मृग मरीचिका में
उलझती जाती हूँ ।
तुम अद्वितीय ,अनंत ,अनुपम हो
पर किसने देखा है यह रूप तुम्हारा,
जब तुम निराकार ,अजन्मा कहलाते हो ?
जानती हूँ जैसी अनुभूति वैसी मूर्ति ।
हर विधा में ढल जाते हो
कहीं धुंध को चीरती किरण हो
कहीं तिमिर को भेदती बाती हो
कहीं राधा के किशन हो
कहीं मीरा के श्याम हो
सुना है हर युग में तुम्हारा पदार्पण
भक्तों की निरीह पुकार पे हुआ है ।
पाप का बोझ जहां बढ़ा
तुम तारण को आ जाते हो ।
द्रौपदी को तारने वाले सुदर्शन प्रिय
नहीं हो रहा क्यों आज जग का श्रिय?
कितनी द्रौपदियां लुट रहीं यत्र - तत्र हैं
विछिन्न मन- प्राण घायल सर्वत्र है
पाप का आवरण हो रहा घना है ।
अब तो आ जाओ नाथ
धवल चाँदनी सा सहला जाओ
द्वंद्व नहीं कोई तुम्हारे अस्तित्व पर
पर निर्द्वंद्व भी नहीं
छोड़ दिया है नाव बिन पतवार के
चाहे थाम लो चाहे बहने दो धार में
जिस घड़ी ठहर जाऊं बिन ह्रास के
समझ जाऊं वह सर्वज्ञ है पास में ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (25-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
द्वंद्व नहीं कोई तुम्हारे अस्तित्व पर
पर निर्द्वंद्व भी नहीं
छोड़ दिया है नाव बिन पतवार के
चाहे थाम लो चाहे बहने दो धार में
जिस घड़ी ठहर जाऊं बिन ह्रास के
समझ जाऊं वो सर्वज्ञ है पास में ।
....मन के अंतर्द्वंद्व को चित्रित करती बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति..