वो उड़ चली है
मेरे लिए
घड़ी की सुइयाँ स्वतः नहीं चली हैं
वार्डन ने तय किया था पैमाना
कहाँ जाऊं,क्या करूँ ,कब आऊँ
फिर भी इस बंधन को खूब जीया है
कोई शिकवा नहीं ,कोई गम नहीं
शायद उतनी सी परिधि में
अपना आकाश तलाशा था
दरवाज़ों नहीं खिड़की से झाँका था
एक ही दिशा को क्षितिज माना था
इसी बुनियाद पर व्यक्तित्व की इमारत गढ़ी
अपरिमित भावों के सागर में
डूबते - उतराते जब थक गयी
तो कविता मुखर होने लगी
मेरी तरह छंदों के दायरे में बँधी
कभी लगता भावों की कसमसाहट में
दम तोड़ रही है कविता कुलबुलाहट में
फिर भी वह गीत बन उतरती रही
जाने - अनजाने होंठों पे सजती रही
पर अब मैंने ठान लिया है
अपनी संवेदनाओं को छंदबन्द्ध नहीं रखूंगी
पिंजरे के बाहर की दुनिया उसे देखने दूंगी
पूरे गगन में बाँहें फैलाये उड़ने दूंगी
और देखो ....वो उड़ चली है ...।
नई दिशा तलाशती आपकी कविता... आपका मन... कविता एक नए क्षितिज को छू रही है...शुभकामनाएं नए आकाश के लिए...