मन का पंछी
चाँद का तन्हा सफ़र कैसे देखूँ
अक्स उसकी बेचारगी का कैसे झेलूँ
कोई तो रंग बिखेर दे अमा की रात
निराकाश में छेड़ दे प्रेम की बात ।
प्यार नहीं बंधा है रिश्तों की रेखाओं में
नर्म कोहरा अहसास का व्याप्त रूहों में
लांघ कर उम्र और काल की सीमाओं को
चलो थाम लें प्यार के नए फंसानों को ।
छूटता अपनों का साथ ,जुड़ जाते बेगाने
मन तू आज़ाद पंछी किधर उड़े क्या जाने
आज इस मुंडेर पे नाच रहा है भर थिरकियां
कल उसकी वीरानगी पे भर रहा था सिसकियाँ ।
हृदय की नीरवता में तुमने कलरव मचाई
तिमिर का कर नाश ,सुबहा नई दिखाई
अब न जाना छोड़ जग के चपल वार में
डूबते का तिनका बन जाना मझधार में ।
हर संवेदना को शब्दों की डोर में बाँध
आओ उतार दें हर सच्चाई निर्बाध
यकीनन जो बात होंठों तक नहीं आती है
पन्नों पर आसानी से उतर जाती है ।
वाह बेहतरीन रचना बहुत-२ बधाई
(अरुन शर्मा = arunsblog.in)
हर संवेदना को शब्दों की डोर में बाँध
आओ उतार दें हर सच्चाई निर्बाध
यकीनन जो बात होंठों तक नहीं आती है
पन्नों पर आसानी से उतर जाती है ।
छूटता अपनों का साथ ,जुड़ जाते बेगाने
मन तू आज़ाद पंछी किधर उड़े क्या जाने
आज इस मुंडेर पे नाच रहा है भर थिरकियां
कल उसकी वीरानगी पे भर रहा था सिसकियाँ ।
बहुत ही सुंदर ..
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर ..
सादर !
sach hai ki jo ham kah nhi pate wo likh dete hai...lekhana koe aap se jane...dil ko chu leti hai rachana
बहुत ही सुंदर भावों से सजी रचना | हृदयस्पर्शी रचना |
thank you pradeep