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वक़्त का वज़ूद



                वक़्त का वजूद 


वक़्त की बेलगाम रफ़्तार का वजूद 
है स्नेहसिक्त माँ की आँचल में मौजूद ।
दिखता है चेहरे की गहराती रेखाओं में
और कभी -कभी जीवन की भूलभुलैया में  । 


सन्नाटों में गूँजती है मेरी चहक 
कोने -कोने में है मेरे होने की महक ।
प्रियजनों का छूटता साथ ,रिश्तों की बारीकियाँ
कभी रुलाती कभी सहलाती ,अमिट ये निशानियाँ ।


जिन शक्त हाथों को थामे चलना सीखा 
उनकी लकीरों में युगों का अंतराल दिखा ।
उन काँपती बेजान हाथों की नरमी 
अब तक छुपाये है प्रचुर नेह की गरमी।


जीवन का यथार्थ एक कटु दिवास्वप्न है
 रेत बन तुरंत  मुट्ठी से फिसल जाता है ।
अतीत के गर्भ में चाहे सब कर दो विसर्जित 
कुछ कालखंड सदा रहते दिल में सुसज्जित ।

रविकर  – (11 March 2012 at 20:22)  

भाव और बहाव युक्त प्रस्तुति ||

ANULATA RAJ NAIR  – (11 March 2012 at 23:22)  

बहुत बढ़िया..
सुन्दर रचना...

kavita vikas  – (12 March 2012 at 05:29)  

thank you ,aabhar Ravikarji and Expressionji

कविता रावत  – (16 March 2012 at 01:11)  

चराचर का भेद समझा जब ज्ञानदीप से
जीवन को गुज़रता देखा सामने से
अतीत के गर्त में चाहे सब कर दो विसर्जित
अभिन्न जनों को जोड़ता हृदय-तार
अखंडित रहता ,झेलता समय की मार
....gyan ke tar jab jhankrit ho uthte hain tabhi yatharth ko bodh hota hai..
sundar bhavpurn rachna!

संजय भास्‍कर  – (20 March 2012 at 07:08)  

अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

kavita vikas  – (21 March 2012 at 03:54)  

thank you sanjay bhaskarji and kavita rawatji

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