कहीं कुछ रिक्त है
पतझड़ की एक सूखी पत्ती थी
उठा कर तुमने उकेर दिया
सुन्दर सी चित्रकारी
भर दिया नेह का रंग
कोरी कल्पनाएँ कसमसा उठीं
और मैं वसंत की बहार बन गयी ।
वह भी अपना ही संसार था
अपने सूनेपन की मलका
ख़ामोशी के अनकहे गीत पर
बेपरवाह थिरकना
मुझ पर बरसा कर प्रेमरस
क्या जादू कर डाला
अपने देहयष्टि में मैं
अपनी ही नहीं रही ।
साँसों की गर्मी से टपकता स्वेद
पिघलता अहसास बूंद - बूंद
स्मृति चिह्न बन कर रह गया
और शुरू हुआ आँखों के समंदर में
तूफानों का सिलसिला
मच गया हृदय में हाहाकार
इंतज़ार के बेहद निर्दयी पल
घायल करते गए वार पर वार ।
बिछोह की पीड़ा में प्रेम की सन्तति कहाँ
गगन ,सलिला ,किसलय ,कलोल
सभी आत्मीय लगते हैं
फिर भी कहीं कुछ रिक्त है ।
ऐसा लगता है
मुद्दतों से सावन नहीं आया
अनुराग के अंकुर फूटे नहीं ।
नज़रें तकती हैं राह अनिमेष
तुम ही बादल हो संतृप्ति के
तुम वसंत दूत,
तुम प्रेम की प्रतीति हो
और नहीं पाने को कुछ शेष ।
भावपूर्ण और बेहतरीन प्रस्तुति,आभार.
बढ़िया प्रस्तुति-
आभार आदरेया-
मार्मिक प्रस्तुति
bahut hee gahan vichaar!!
खूबसूरत भाव ।