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   वह तुम ही हो 

मन  के आकाश में उमड़ता 
उलझनों का बादल घुमड़ता 
संतृप्त हों बूँदें बरसतीं 
जैसे व्यथा गीत में ढलती 
नभ में फिर तीक्ष्ण किरणें चमकतीं 
नव चेतना नस -नस में प्रवहती
रोशनाई बन जो महाकाव्य रचवाता
और कोई नहीं ,वह तुम ही हो चैतन्य विधाता ।

रात भयावह हो काली
दुर्लभ हो सुबहा की लाली 
आँधियों के दस्तक से विह्वल
टूटकर बिखरती प्रतिपल 
फिर भी नहीं टूटती आस 
समेटती हूँ क्षीण पड़ी साँस
जुगनू बन चमक रहा मेरे शीर्ष 
और कोई नहीं वह ,तुम ही हो मेरे श्रीश ।

अपनों का दिया दर्द बेशक भारी होता 
अंतर का प्रलाप इसलिए बेकाबू होता 
सैलाब तोड़ जो पीड़ा बह निकलती 
वही तो अपनी है ,बाकी सब छलती
हमराही छोड़ देते जीवन के चौराहे में 
किस मोड़  मुड़ूँ अपलक निहारूं फलक में 
अतुल प्रकाश से दमकता वो अटल सितारा 
और कोई नहीं ,वह तुम ही हो, मेरे ध्रुवतारा।

Unknown  – (20 May 2013 at 05:30)  

आपकी यह रचना कल मंगलवार (21 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण अंक - २ पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

अरुणा  – (31 May 2013 at 05:58)  

सुन्दर भाव पूर्ण रचना

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