बोंसाई
मैं कोई बोंसाई का पौध नहीं
जिसकी जड़ों को काट कर
शाखाओं - प्रशाखाओं को छाँट कर
एक गमले में रोप दिया ।
मैं तो मैं हूँ ।
बेटी ,बहन और पत्नी के रिश्तों का
निर्वहन करती हुई भी
एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हूँ ।
अपना एक वजूद है
एक ठोस ज़मीनी सतह हूँ
जिस पर काल के झंझावातों ने
कम विनाश नहीं रचा।
फिर भी सुनहरी किरणों वाला सूर्य
हर दिन उगता है ।
हवाएँ सुरमयी संगीत बिखेरती हैं
नव पल्लवन को मैं उल्लसित रहती हूँ ।
मेरे अंतर को चीर कर देखो
गर्म लावा प्रवहित है ।
जब भी मेरे वजूद को ललकारा
मैं ज्वालामुखी बन जाती हूँ ।
नहीं बनती मैं बेवज़ह बर्बादी का सबब
लेकिन मेरी कोमलता कायरता नहीं है ।
बंधी है इसमें एक कूल की मर्यादा
और आँगन की किलकारियों का अविरल प्रवाह ।
कुम्हार के चाक सा सुगढ़ निर्माण
लिखा है मेरी हथेलियों में
फिर भला क्यूँकर इनसे हो विनाश ?
अपने सर्ग का उपहार
बस यही माँगू मैं
कि बढ़ने दो मुझे वट सा विस्तृत ।
मेरी छांव से ना कर गुरेज
प्रकृति ,प्राणी ,प्रयास
मैं ही तो हूँ ।
बोंसाई के बगल में
अपनी पौध लहरा कर
सामंजस्य कैसे कर पाओगे तुम ?
दो एक विशाल आयाम मुझे
और अगर नहीं दे पाए
तो मेरे आकाश को ना बाँधो
उड़ने दो मुझे स्वतः
जैसे नील गगन में उड़ता जाता है
पक्षी क्षितिज के पार ।
मैं कोई बोंसाई का पौध नहीं
जिसकी जड़ों को काट कर
शाखाओं - प्रशाखाओं को छाँट कर
एक गमले में रोप दिया ।
मैं तो मैं हूँ ।
बेटी ,बहन और पत्नी के रिश्तों का
निर्वहन करती हुई भी
एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हूँ ।
अपना एक वजूद है
एक ठोस ज़मीनी सतह हूँ
जिस पर काल के झंझावातों ने
कम विनाश नहीं रचा।
फिर भी सुनहरी किरणों वाला सूर्य
हर दिन उगता है ।
हवाएँ सुरमयी संगीत बिखेरती हैं
नव पल्लवन को मैं उल्लसित रहती हूँ ।
मेरे अंतर को चीर कर देखो
गर्म लावा प्रवहित है ।
जब भी मेरे वजूद को ललकारा
मैं ज्वालामुखी बन जाती हूँ ।
नहीं बनती मैं बेवज़ह बर्बादी का सबब
लेकिन मेरी कोमलता कायरता नहीं है ।
बंधी है इसमें एक कूल की मर्यादा
और आँगन की किलकारियों का अविरल प्रवाह ।
कुम्हार के चाक सा सुगढ़ निर्माण
लिखा है मेरी हथेलियों में
फिर भला क्यूँकर इनसे हो विनाश ?
अपने सर्ग का उपहार
बस यही माँगू मैं
कि बढ़ने दो मुझे वट सा विस्तृत ।
मेरी छांव से ना कर गुरेज
प्रकृति ,प्राणी ,प्रयास
मैं ही तो हूँ ।
बोंसाई के बगल में
अपनी पौध लहरा कर
सामंजस्य कैसे कर पाओगे तुम ?
दो एक विशाल आयाम मुझे
और अगर नहीं दे पाए
तो मेरे आकाश को ना बाँधो
उड़ने दो मुझे स्वतः
जैसे नील गगन में उड़ता जाता है
पक्षी क्षितिज के पार ।
बहुत ही सुन्दर भाव ....
शुभकामनायें ...
मित्रों..!
आजकल उत्तराखण्ड में बारिश और बाढ़ का कहर है। जिससे मैं भी अछूता नहीं हूँ। विद्युत आपूर्ति भी ठप्प है और इंटरनेट भी बाधित है। आज बड़ी मुश्किल से नेट चला है।
--
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (19-06-2013) को तड़प जिंदगी की ---बुधवारीय चर्चा 1280 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
vandana gupta has left a new comment on your post " बोंसाई मैं कोई बोंसाई का पौध नहीं जिसकी जड़...":
स्त्री मन के भावों के साथ काफ़ी कुछ समेट लिया फिर चाहे वो प्रकृति ही क्यों ना हो …………सुन्दर अभिव्यक्ति।