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वो टूटता तारा


                                                    


पलकों की चिलमनों में थे हम  बैठे 
जाने कब आँखों की किरकिरी बन उठे ।
दोस्तों की महफ़िल बड़ी बेमानी लगती 
सहानुभूति उनकी ज़ख्मों को हरा कर देती 


यादों की हर चिराग को हमने बुझा दिया 
तुम्हारी खतों को मोमबत्ती की लौ चढ़ा दिया ।
सोच लिया ,तुम भी गुज़रे ज़माने की बात थे 
दुनिया की भीड़ में शामिल एक नसीर थे ।


आज कुछ सूखी पंखुरियाँ मिल गयी किताबों में 
और वो मोर पंख जिसे सहलाते थे गालों  में ।
कौंध गयी एक पहचानी सी सिहरन रगों में 
चाँद भी मुस्कुरा रहा था कुछ खास शोखियों में ।


अन्तरिक्ष  की परिधि को चीरता टूटा एक सितारा 
मूंदे हुए नैनों में दिखा मेरी आँखों का तारा ।
सोचा था ,तुमसे जुड़ी हर शमां बुझ गयी है 
फिर जाने कौन सा सुराख़ हवा देती रही है ।


शाम का धुंधलका अब अकेले नहीं आता 
जज़्बातों की एक लम्बी फेहरिस्त साथ लाता।
मुस्कान में दर्द उमड़ता और दर्द में अश्क छलकता 
भला कैसे मिलती अपनेआप  से ,जो वह तारा न टूटता ।


तुम्हें भूलने के उपक्रम में ,मेरा अस्तित्व मिटता गया 
यों किताबों में जिल्द चढ़ती है ,मैंने भी आवरण चढ़ा लिया ।
ज़माने का दस्तूर निभाते हुए ,हर गम दरकिनार कर दिया 
एक नफ़ीस मुस्कान की चादर से चेहरे को ढांक लिया ।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’  – (26 February 2012 at 08:02)  

बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 27-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib')  – (27 February 2012 at 03:27)  

अच्छी रचना...
हार्दिक बधाई..

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