जिंदगी
शतरंज की बिसात सी ज़िन्दगी
जब तक सपाट थी ,थी
एक बार जो शुरू हुआ
अपनों और गैरों के बीच द्वंद्व
फिर तो शह और मात में ही
उलझ कर रह गयी है ।
अनगिनत सवालों के भंवर में ज़िन्दगी
जब तक जूझ रही थी ,थी
एक बार जो बाहर निकल आयी
तो अपने ही शक्ति परीक्षण पर उठा प्रश्नचिन्ह
मुखौटों से लदे चेहरों की परिभाषा
स्वयं ही रच रही है ।
शब्दों के मायने निकालने में ज़िन्दगी
अपने ही चक्रव्यूह में घिर रही है
सही - गलत के पैमाने बदल गए
किंकर्त्तव्यविमुढ़ सी जड़ हो गयी
सत्य हार गया और झूठ की आंधी
रौंदती जा रही है।
अपने ज़ख्मों पर मरहम लगाती ज़िन्दगी
उदार और विशाल हो गयी है
खुशियाँ छलावा हैं
दुःख क्षणिक हैं
महानिद्रा में समाने से पहले
अनुभवों का क़र्ज़ चूका रही है ।
बेहिसाब दौड़ती - भागती ज़िन्दगी
पसीने में तर - बतर है
बंद रोशनदान की सुराख से आती
मंद - मंद पवन सहलाती है
अब तो बोधिवृक्षों की छाँव तलाशने में
मेरे वक़्त की रफ़्तार जूझ रही है ।