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          धूप 
आँगन में उतरती हुई 
 नर्म ,गुनगुनी धूप 
बड़ी भली लगती है
 अलसाई सी दिनचर्या में 
अचनक रफ़्तार आ जाती है 
माँ की बड़ियाँ सूखने लगती हैं
 आर्द्र कपड़े गरमाने लगते हैं 
और जाने क्या - क्या ...
देखते ही देखते पूरा कुनबा 
आँगन में सिमट जाता 
बालों में तेल लगाने से लेकर 
बिटिया की मँगनी के दिन तय करने में 
चौपालें सजी रहतीं उसी   जगह 
मोहल्ले वाले भी जुटते जाते 
छोटी से छोटी ,बड़ी से बड़ी 
समस्याओं का हल 
धूप की गर्माहट से हो जाता ।

अब जब जाड़े की प्रातः में 
गज भर बालकोनी में 
छिटपुट धूप को पकड़ती हूँ 
कमरे से  आवाज़ आती है 
हॉट ब्लॉअर में आ जाओ न ..
मैं मायुसी से अन्दर जाते हुए सोचती हूँ 
तुम क्या जानो धूप क्या होती  है ?
धूप ,तुम सामाजिकता का पर्याय हो 
रिश्तों की नरमी का अहसास हो 
बचपन को संजोया चलचित्र हो
हम तो गमलों में पल रहे कैक्टस हैं 
सुखों की कँटीली बाड़ से घिरे हैं 
जिन प्रस्तर - प्राणों ने देखा नहीं आँगन 
वो क्या जाने धूप की गर्माहट क्या है। 

धूप  तुम तो अब भी वही हो 
 प्यारी सी ,नर्म ,गुनगुनी सी 
मन करता है झपट कर तुम्हें
अंजुरी में भर लूँ और डूबो दूँ 
अपने तन - मन को और 
जी लूँ अपने बचपन को 
या फिर फैला दूँ संकीर्णता से भरे 
कबूतरखाने जैसे महानगरीय फ्लैट 
के कोने - कोने में 
तुम्हारे गर्म अहसास भेदकर 
भावशून्य मन - मस्तिष्क को 
भर दे तुम जैसी गुनगुनी चमत्कार को ।


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