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लहरों की कहानी 


सागर की बेशुमार जलराशि में 
लहर बनकर जीता हूँ 
दिन - रात की जद्दोजहद में 
ज़रा न शिकन लाता हूँ ।
चाँद छूने की जहमत में 
उठ -उठ कर गिरता हूँ 
बेमिशाल इस प्यार में 
हर रात पागल कहलाता हूँ ।
उठती है जब तूफां दिल में 
आक्रोश तट पे निकालता हूँ 
कितने ही जनजीवन चपेट में 
अनायास ही ले लेता हूँ ।
प्रौढ़ नदियों की थकान में 
मिलनसुख की तड़प है 
नभ के निहुरते सूनेपन में 
मेरे आलिंगन की ललक है ।
आरज़ू है दिल के कोने में 
काश चाँद आकर बस जाता 
क्षितिज की लालिमा में 
अक्स हमारा दिख जाता ।
प्रेम की अधूरी अभिलाषा में 
जीवन सर्वस्व लुटाया हूँ 
परपीड़ा भर अपनी झोली में 
कलंक खारा का पाया हूँ ।

रविकर  – (6 July 2012 at 00:17)  

चर्चा मंच पर है यह टिप्पणी -

कविता करे विकास नित, कवि के मन की चाह |
शीतल चन्दा चांदनी, मिले आस को राह ||

kavita vikas  – (6 July 2012 at 01:03)  

ravikarji aur sushil ji ko mera sadar dhanywaad

Rajesh Kumari  – (6 July 2012 at 10:14)  

सागर का बिम्ब बहुत ही खूबसूरत लगा कविता में बहुत खूब

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