बचपन
चाँद - तारों को झोली में भर
घरौंदों में सुनहरी आभा कर
परियों संग आँख - मिचौली खेलना
शहजादों संग गुड़ियों का ब्याह रचाना
क्या खूब भाता था ।
डर नहीं कोई रात की स्याही से
नियमों में बंधने की पाबंदियों से
रेत का महल बनाना
फिर ढहढहा कर गिरा देना
नश्वरता का मानो भान था ।
बारिशों में भींगने की चहक
बुलबुलों को थामने की ललक
कागज़ की नावों को चलाना
फिर छलांगें लगा छीटें उड़ाना
क्या स्वर्गिक सुख था।
अरमानों का पनपा नहीं बीज था
जो मिला बस वही अपना था
माँ की आँचल में सिमट जाना
लोरियों की तान में खो जाना
दुनिया का यही मतलब था ।
समय फिसलता - सरकता गया
बचपन हाथों से निकलता गया
उम्र की दहलीज पर खड़ा होना
फिर पलट कर पीछे देखना
बहुत ललचाता है ।
छोटी -छोटी खुशियों वाला बचपन
मुट्ठियों में बंद सपनों वाला बचपन
जब भी मन खाली होता है
अनायास आँखों में छलक पड़ता है
एक मधुर स्मृति बन कर ।
बचपन की सुन्दर यादों की ताजा करती सुन्दर रचना...
:-)
आपकी रचना ने बचपन की यादों को हरा कर दिया, सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें
आप और आपके पूरे परिवार को मेरी तरफ से दिवाली मुबारक | पूरा साल खुशिओं की गोद में बसर हो और आपकी कलम और ज्यादा रचनाएँ प्रस्तुत करे.. .. !!!!!
बचपन वाकई ऐसा होता है....
बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर भावप्रणव प्रस्तुति!