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मन समंदर हो चला
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भर कर पीड़ जग  का  सारा 
मन समंदर हो चला 
उच्श्रृंखल विकल लहरें 
भावावेश में उठती गिरती
तोड़ कर सीमाओं का पाश 
तट पर थक पसरती 
बूंद - बूंद आलिंगन कर के भी 
मन घट रीत चला। 
बनते नहीं मेघ अब 
नैनों के आकाश में 
बेमौसम संतृप्त हुआ 
किसी के इंतज़ार में 
विस्तृत वीरानगी को तकते 
मन बंज़र हो चला। 
पनपते नहीं अरमां नए 
बीत गए वो तितली दिन 
जीवन रंग धूमिल हुआ 
बोझल मन तुम बिन 
जज़्ब कर अंतर के उन्माद 
मन रेतीला हो चला। 

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  – (24 March 2014 at 09:19)  

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (25-03-2014) को "स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ" (चर्चा मंच-1562) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
कामना करता हूँ कि हमेशा हमारे देश में
परस्पर प्रेम और सौहार्द्र बना रहे।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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