बरस - बरस घन बरसाओ रे
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बरस - बरस घन बरसाओ रे
हरस - हरस मन हरसाओ रे।
शप्त
पतझड़ में मधुवन
आँखन
में है असवन
सूना -
सूना है चितवन
नद-
पोखर ,वन - उपवन
उठ रहा मेघों का ज्वार आज
नयन और गगन हुए एक आज
यादों से न तन को तरसाओ रे
बरस - बरस घन बरसाओ रे
कैसे
बतलाऊँ प्रेम की पीर
निशि
दिन रहता मन अधीर
पलक बिछाऊँ यमुना के तीर
इस सावन
आएगा मेरा हीर
हर वन
- प्रांतर का उत्ताप आज
हर मन - आँगन का संताप आज
सरस पावस धन दरसाओ रे
बरस - बरस घन बरसाओ रे
ओढ़ कर
चुनरिया धानी
इठला
रही वसुधा रानी
न करना
मेघ मनमानी
तुमसे
बड़ा न कोई दानी
बरसा अमृत कण - कण सरसाओ रे
बरस - बरस घन बरसाओ रे।
बहुत सुंदर गीति काव्य