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  दार्शनिक  साँझ 

क्षितिज पर ढलता सूरज 
गुलाबी आसमां
नारंगी ,मटमैली किरणें 
क्षीण सी ,निस्तेज 
धूमिल दिशाएँ 
कैसी सुन्दर साँझ ।
नीड़ को आतुर 
व्याकुल खगदल
थकी सी कलरव 
श्रांत क्लांत तन 
गोधुली बेला 
मनमोहक सांझ ।
भोर से था विभोर
पंक में उद्भाषित 
छेड़ता सौन्दर्य -गान 
लाल -सफ़ेद पद्म 
मुंद रहा आँखें 
दार्शनिक साँझ ।
हाथों में हाथ डाले
 खुशियों में सराबोर 
क्रीड़ाओं से निवृत 
आ रहे शिशु विकल 
माँ को लुभाने 
खूब रिझाती सांझ ।
सुबहा चलने का नाम 
सांझ है प्रतीक विराम 
अनवरत यह फेरा 
चराचर को बाँधे
आती - जाती 
उपदेशक सांझ ।
समय का फेर 
होता बड़ा बलवान 
स्वयंभू है बदलाव 
जीवन के मेले में 
आज सुबह है 
कल अवश्यम्भावी सांझ ।

Unknown  – (11 December 2012 at 07:21)  

आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (12-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |

Asha Lata Saxena  – (11 December 2012 at 16:36)  

बहुत भावपूर्ण |
आशा

खोरेन्द्र  – (22 December 2012 at 22:27)  

अच्छी कविता ..जीवन दर्शन लिए हुए

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