दार्शनिक साँझ
क्षितिज पर ढलता सूरज
गुलाबी आसमां
नारंगी ,मटमैली किरणें
क्षीण सी ,निस्तेज
धूमिल दिशाएँ
कैसी सुन्दर साँझ ।
नीड़ को आतुर
व्याकुल खगदल
थकी सी कलरव
श्रांत क्लांत तन
गोधुली बेला
मनमोहक सांझ ।
भोर से था विभोर
पंक में उद्भाषित
छेड़ता सौन्दर्य -गान
लाल -सफ़ेद पद्म
मुंद रहा आँखें
दार्शनिक साँझ ।
हाथों में हाथ डाले
खुशियों में सराबोर
क्रीड़ाओं से निवृत
आ रहे शिशु विकल
माँ को लुभाने
खूब रिझाती सांझ ।
सुबहा चलने का नाम
सांझ है प्रतीक विराम
अनवरत यह फेरा
चराचर को बाँधे
आती - जाती
उपदेशक सांझ ।
समय का फेर
होता बड़ा बलवान
स्वयंभू है बदलाव
जीवन के मेले में
आज सुबह है
कल अवश्यम्भावी सांझ ।
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (12-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |
बहुत भावपूर्ण |
आशा
सुंदर भाव..........
dhanywaad arun kumar nigam ji
अच्छी कविता ..जीवन दर्शन लिए हुए