वसंत झूमता है
शीतोष्ण का संधिकाल
बेहद रोमांचक होता है
एक ओर शरद का उठता साया
दूसरी ओर ग्रीष्म से जुड़ता नाता
और ,बीच में वसंत झूमता है ।
नव पल्लव ,नव किसलय
नव पुष्प में ऋतुराज खिलता है
बौराई पवन अपने वेग में
कभी सरसों हिलाती
कभी महुआ गिराती
पीत वर्ण की सज्जा बागों में
सेज मनमोहक सजाती है ।
आमों में मंजर फूटते
लसलसायी सी झुकती - गिरती
भ्रमरों की टोलियाँ
रसपान को होड़ लगाती
कोयल की सुमधुर कूक
पपीहे की मचलती सी हूक
नीरवता में यूँ गूंजती है
प्रकृति ने जैसे सुर - सरगम छेड़ी है ।
शुष्क बयार का अंदाज़ अनोखा
कभी अमलतास में खोता
कभी गुलमोहर को उड़ाता
खुशबुओं से हो लबरेज
बदन की सिहरन में भी गुदगुदाता
बिरहन की अगन लहकाता
मन ही मन मुस्काता है ।
वसंत अपने अल्पावधि में
सर्वत्र जीवंतता भर देता है
चतुर्दिक बिखेर रंगत अपनी
पर - पीड़ा हर लेता है
नयनाभिराम वह, सुखसिंधु बन
दिल में हिलोरें भरता है और
प्रकृति का सन्देश यह बतलाता है
कि अगर शरद रुलाता है
तो क्या वसंत नहीं झुमाता है ?
बेहद ही शानदार रचना।
बहुत ख़ूब वाह!
dhanywaad ,aabhar
सुन्दर रचना!
यहाँ भी देखें-
बुधवार, दिसम्बर 26, 2012
"पुस्तक समीक्षा-लक्ष्य" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
http://powerofhydro.blogspot.in/2012/12/blog-post.html