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चाँद सुलगता रहा

जज़्ब कर लहरों  को
कतरा - कतरा भरभरा जाता  
नित रच नए प्रासादों को 
 रेत खुद रीतता जाता ।
पावस नेह में जी पड़ीं 
दलदल हुई नदियाँ 
इक पिपासा अनंत सी उमड़ी 
और पी गयी अंतर का दरिया ।
कभी -कभी छलकता है समंदर 
शाम की  तन्हाइयों में 
डूबते - उतराते  अनगिन मंज़र  
छा जाते हैं वीरानों में ।
 ठहरे पानी में फेंक पत्थर 
कोई बात पुरानी छेड़ता है 
हलचलें थमतीं मंथर - मंथर 
कोरों पर पानी फैलता है  ।
उजालों का तेवर देख लिया 
चुभती हैं नस - नस में 
वृक्षों ने भी किनारा कर लिया 
चली जब छाँह की तलाश में ।
शहर की चकाचौंध छोड़ 
गली - गली गुजरता रहा 
अपनी शीतल चाँदनी छोड़ 
चाँद भी सुलगता रहा ।
हश्र यही है प्यार में 
भोर का तारा सोचता  
टूटकर किसी की दुआओं में 
जगह अपनी  बना जाता ।

Kailash Sharma  – (8 July 2013 at 07:25)  

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..

रविकर  – (8 July 2013 at 22:03)  

विगत ३ माह काफी व्यस्त रहा-
इसलिए ब्लॉग पर आना न हो सका-
आभार आदरेया-
सुन्दर प्रस्तुति

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