चाँद सुलगता रहा
जज़्ब कर लहरों को
कतरा - कतरा भरभरा जाता
नित रच नए प्रासादों को
रेत खुद रीतता जाता ।
पावस नेह में जी पड़ीं
दलदल हुई नदियाँ
इक पिपासा अनंत सी उमड़ी
और पी गयी अंतर का दरिया ।
कभी -कभी छलकता है समंदर
शाम की तन्हाइयों में
डूबते - उतराते अनगिन मंज़र
छा जाते हैं वीरानों में ।
ठहरे पानी में फेंक पत्थर
कोई बात पुरानी छेड़ता है
हलचलें थमतीं मंथर - मंथर
कोरों पर पानी फैलता है ।
उजालों का तेवर देख लिया
चुभती हैं नस - नस में
वृक्षों ने भी किनारा कर लिया
चली जब छाँह की तलाश में ।
शहर की चकाचौंध छोड़
गली - गली गुजरता रहा
अपनी शीतल चाँदनी छोड़
चाँद भी सुलगता रहा ।
हश्र यही है प्यार में
भोर का तारा सोचता
टूटकर किसी की दुआओं में
जगह अपनी बना जाता ।
जज़्ब कर लहरों को
कतरा - कतरा भरभरा जाता
नित रच नए प्रासादों को
रेत खुद रीतता जाता ।
पावस नेह में जी पड़ीं
दलदल हुई नदियाँ
इक पिपासा अनंत सी उमड़ी
और पी गयी अंतर का दरिया ।
कभी -कभी छलकता है समंदर
शाम की तन्हाइयों में
डूबते - उतराते अनगिन मंज़र
छा जाते हैं वीरानों में ।
ठहरे पानी में फेंक पत्थर
कोई बात पुरानी छेड़ता है
हलचलें थमतीं मंथर - मंथर
कोरों पर पानी फैलता है ।
उजालों का तेवर देख लिया
चुभती हैं नस - नस में
वृक्षों ने भी किनारा कर लिया
चली जब छाँह की तलाश में ।
शहर की चकाचौंध छोड़
गली - गली गुजरता रहा
अपनी शीतल चाँदनी छोड़
चाँद भी सुलगता रहा ।
हश्र यही है प्यार में
भोर का तारा सोचता
टूटकर किसी की दुआओं में
जगह अपनी बना जाता ।
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
बेहतरीन प्रस्तुति
विगत ३ माह काफी व्यस्त रहा-
इसलिए ब्लॉग पर आना न हो सका-
आभार आदरेया-
सुन्दर प्रस्तुति
aabhar aap sab ka