माटी की देह
तरु के वृंत पर खिलता सुमन
देख आज जग की
खुशहाली
इतरा रहा भाग्य पे अपने भुवन
क्या पता कल आये न आये हरियाली
क्षणिक हैं दिन बहार के
क्रूर हाथों
से कल कोई माली
गूँथ कर तुम्हे हार प्रणय के
छीन ले सौन्दर्य का
लाली
रूप लावण्य का मत दंभ भर
देख लालायित मधुप को
मदहोश सा अंग - अंग
चूमता
आतुर तुम्हारे रसपान को
मुट्ठी का रेत सा है जीना
जान यह मन होता
विचलित
हरि - शीश पर जाने कब चढ़ जाना
यही अनिश्चित है निश्चित
पछताएगा रिश्तों से कर नेह
चार दिन का है हँसना - गाना
फिर तो माटी की देह
है माटी में मिल जाना ।
है माटी में मिल जाना ।
यथार्थ को कहती सुंदर रचना
बेहतरीन रचना...
:-)
बहुत सुंदर सार्थक भाव