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 फिर उगना आ गया है

 लगाकर  रखा था बरसों तक पहरा
हमें घर से निकलना अब आ गया है।
छाया था काले धुएँ सा कुहरा
हमें सूरज सा निकलना  आ गया है।
जीवन के टेढ़े - मेढ़े रास्तों, संभल जाओ
हमें राह बदलना  आ गया है।
हाथ की  रेखाओं ज़रा बदल जाओ
हमें किस्मत गढ़ना  आ गया है।
कमर कस  लिया हुनर हज़ार सीखने को
हमें हर  हार को जीतना   आ गया है।
 बिस्तर की  फ़िक्र है नींद वालों को
हमें करवटों में रात गुज़ारना  आ गया है।
मेरे परवाज़ को उठती हज़ारों दुआएँ
हमें तुम्हारा कद्र करना   आ गया है।
ठान लिया , आँधियों का रुख़ मोड़ते जाएँ
हमें ढल  कर फिर उगना आ गया है।  

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  – (30 November 2013 at 17:09)  

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (01-112-2013) को "निर्विकार होना ही पड़ता है" (चर्चा मंचःअंक 1448)
पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

रविकर  – (1 December 2013 at 00:32)  

बहुत बढ़िया है आदरेया-
आभार आपका-

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