अनचाहा मिल जाता है
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याद तुम्हारी जब आती है
हृदय सुमन खिल जाता है
जिसकी चाह नहीं मिलता वह
अनचाहा मिल जाता है ।
हो नज़रों से दूर भले तुम
मन में पर रहते तुम हो
दुख – सुख के हर मंज़र पर भी
आँखों से झरते तुम हो ।
साथ के मौन संवादों से
उधड़ा मन सिल जाता है ।
कोई शिकवा नहीं किसी से
न इल्तिज़ा अरी ज़िंदगी
हमनें तो हँसते – रोते की
तेरी उम्र भर बंदगी ।
रुत वसंत के आते ही यह
मन अक्सर हिल जाता है ।
खुश हूँ जब से ठानी है
खुश रहना हर हालत में
सज़दे करती हूँ मंदिर में
रम कर छंदों – आयत में ।
द्वार प्रभु के ही टिकता पाँव
जब काँटों से छिल जाता है ।
क़ैद आज भी है आँखों में
मुलाकातों का वो गाँव
तेरी बाँहों के घेरे में
मिलती सुकूं की जो छांव ।
बड़े जतन से संभालूँ जब
पास तेरे दिल जाता है ।
जिसकी चाह नहीं मिलता वह
अनचाहा मिल जाता है ।
सुन्दर रचना
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सपने, देखने वालों के ही पूरे होते हैं।