आशा -किरण
>> Tuesday, 3 January 2012 –
आशा -किरण
धुंध के उस पार जो प्रकाश - पुँज है
वह महज किरण नहीं इक आस है।
भेदकर अंधकार की शून्यता जो आती है ,
अरमानों की बगिया खिल -खिल जाती है ।
भला किस द्वार पे वसंत ताउम्र टिका है
पतझड़ का झंखाड़ बार -बार दस्तक देता है ।
जिस चौखट को लांघ खुशियाँ आती हैं
वहीँ से उदासियों की कतार खड़ी हो जाती है ।
सृजन का गणित ही ऐसा है
विनाश का अनुपात उसी जैसा है ।
जिस रोशनदान के पीछे रजनी गहराती है
आखिर वहीँ से छनकर रश्मि आती है।
समय के स्वर्णिम पन्ने पर मौज़ूद
नहीं है चिरकाल स्थायी कोई वज़ूद।
मिलन में छिपी है विरह - वेदना
समझ नहीं पाता इसे मानव चेतना ।
समय के स्वर्णिम पन्ने पर मौज़ूद
नहीं है चिरकाल स्थायी कोई वज़ूद।
मिलन में छिपी है विरह - वेदना
समझ नहीं पाता इसे मानव चेतना ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई
धन्यवाद गाफिलजी,
your words are my source of inspiration.
बहुत सुन्दर रचना!
नववर्ष की मंगलकामनाएँ!
धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रियाओं से मेरा मनोबल बढ़ता है ।