मैं विश्वम्भरा हूँ
अंतर्मन में दुंदुभी बजती है
वाद - प्रतिवाद में खूब ठनती है
निःशब्द युध्म महा विध्वंशक होता है
मन का तार - तार छलनी करता है ।
खोलना चाहा जब मन का गिरह
झटक दिया तुमने कह मुझे निरीह
पग-पग पर बिछाया काँटों की सेज
जब की बराबरी ,करना चाहा निस्तेज ।
रे पुरुष ,अब न सहूँगी , मैंने ठान लिया
स्त्री की अस्मिता आखिर तुमने मान लिया
युगांतर में विलम्ब नहीं ,मैं विश्वम्भरा हूँ
अंतर्भूत है ज्वाला और ज्वार की उफान हूँ ।
सूर्यमान सी दीपित होती जाऊँगी
प्रबल प्रवाह सी बहती जाऊँगी
आये जो तिमिर की सघनता
या शिलाखंड की बाधा अनंता ।
दीप्तमान रहना है ,न लौटूँ हो निराश
अजेय रहना है ,काल का तोड़ पाश
म्रियमाण नहीं ,साक्षात देवी अवतार
दिविज हूँ ,शक्ति मुझमे अपरम्पार ।