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(कोयला खदान के श्रमिकों पर आधारित कविता )
                श्रमिक 
भूगर्भ की सम्पदा है अपार 
जाने कहाँ काले हीरे की कतार 
पूछो काले धूल -धुसरित छाया से 
पसीने में नहाया विज्ञानी काया से ।

जल रहा तन -बदन विकीर्ण ताप से 
कहाँ रैन - बसेरा उसे ,भय नहीं उत्ताप से 
दो जुन की रोटी जुटाने में बस लिप्त 
मुट्ठी भर अरमानों में वह तृप्त ।

डरता नहीं जेठ या पौष की मार से 
संघर्ष में लीन वह बेखबर संसार से 
आज में जीता ,कल की फ़िक्र नहीं 
थक कर निढाल ,अभाव का भान नहीं ।

श्रमिक होते बेमिशाल ,कठिन श्रम उनका 
टिका है उन पर ,सुख - सम्पदा देश का 
कर्मवीर वह ,सेवा में उनका धर्म निहित 
कण - कण मिटटी का होता उनसे ऊर्जस्वित।

खोरेन्द्र  – (3 January 2013 at 05:48)  


श्रमिक होते बेमिशाल ,कठिन श्रम उनका
टिका है उन पर ,सुख - सम्पदा देश का
कर्मवीर वह ,सेवा में उनका धर्म निहित
कण - कण मिटटी का होता उनसे ऊर्जस्वित। sahi ...achchhi kavita

अरुण चन्द्र रॉय  – (23 April 2013 at 02:38)  

सुन्दर कविता ... बहुत सुन्दर. मार्मिक भी

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