(कोयला खदान के श्रमिकों पर आधारित कविता )
श्रमिक
भूगर्भ की सम्पदा है अपार
जाने कहाँ काले हीरे की कतार
पूछो काले धूल -धुसरित छाया से
पसीने में नहाया विज्ञानी काया से ।
जल रहा तन -बदन विकीर्ण ताप से
कहाँ रैन - बसेरा उसे ,भय नहीं उत्ताप से
दो जुन की रोटी जुटाने में बस लिप्त
मुट्ठी भर अरमानों में वह तृप्त ।
डरता नहीं जेठ या पौष की मार से
संघर्ष में लीन वह बेखबर संसार से
आज में जीता ,कल की फ़िक्र नहीं
थक कर निढाल ,अभाव का भान नहीं ।
श्रमिक होते बेमिशाल ,कठिन श्रम उनका
टिका है उन पर ,सुख - सम्पदा देश का
कर्मवीर वह ,सेवा में उनका धर्म निहित
कण - कण मिटटी का होता उनसे ऊर्जस्वित।
श्रमिक होते बेमिशाल ,कठिन श्रम उनका
टिका है उन पर ,सुख - सम्पदा देश का
कर्मवीर वह ,सेवा में उनका धर्म निहित
कण - कण मिटटी का होता उनसे ऊर्जस्वित। sahi ...achchhi kavita
gazab soch
सुन्दर कविता ... बहुत सुन्दर. मार्मिक भी