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" .......उड़ने की इच्छा हुई" (कविता विकास)

आशाओं के पंख लगा कर
क्षितिज पर उगते सूरज की
 लालिमा में डूबने की इच्छा हुई
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।


वाष्प में परिणत होकर
 नभ में तैरते पयोद की
 कालिमा में घुसने की इच्छा हुई 
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।


फूलों के सुर्ख रंग चुराकर
फुनगी पर लगे कोपलों की
सम्वृद्धि में खोने की इच्छा हुई 
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।


चंद लम्हे व्यस्त घंटों से निकालकर
कुछ उनकी पीड़ा ,कुछ खुशियों की
परिधि में विचरने की इच्छा हुई ।
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।  

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  – (7 December 2011 at 18:34)  

जाल जगत पर आपका स्वागत है।
आपने बहुत सुन्दर रचना लिखी है।
निरन्तर लिखती रहिए!
--
शब्दपुष्टीकरण का विकल्प टिप्पणी बाक्स से हटा दीजिए ना।
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kavita vikas  – (12 December 2011 at 04:52)  

i will follow what you said. thank you.

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