स्मृति - शेष
>> Monday, 19 December 2011 –
स्मृति - शेष
ज़िन्दगी को सहेजने की जद्दोजहद में
आज फिर उनसे मुलाकात हो गयी ।
सुनसान गलियाँ ,शरद की नीरवता में
अदृश्य घंटियों से गुलज़ार हो गयी ।
बेरंग होती कैक्टस यत्र -तत्र गमलों में
पुनः पुष्पित होने को मचल गयी ।
विषपान जो सीखा जुदाई के अंतराल में
स्नेह सुधा के रसपान को तरस गयी ।
काँटों पर चलना सीखा मैंने तन्हाई में
दर्द ज़ख्मों के स्वतः ही मरहम बन गए।
सुकून जो पाया मैंने कुछ स्मृतियों में
आज चलचित्र बन फिर कौंध गए।
प्राणदीप जलती रही मेरे सूनेपन में
ख्यालों की दुनिया परिपक्व होती गयी ।
अनजाने लोग बँधते गए रिश्तों की डोर में
ख्वाब ही सही ,आबाद जहां मेरी होती गयी ।
बहुत सुन्दर..
आज वटवृक्ष में आपकी रचना देख यहाँ चली आई...
आपकी रचनाएँ बहुत भायीं..
सस्नेह.