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तुम्हारी कस्तूरी मैं


                                         तुम्हारी  कस्तूरी मैं

ख़ामोशी उस दुपहरिया की बड़ी चुभती है
जब काया से छोटी छाया दिखती है ।
सुनसान वादियाँ पलक पाँवड़े राहें तकती हैं
कोई तो है जिनसे गलियाँ गुलज़ार होती हैं ।

मदमस्त बहार तोड़ हर बंधन आता -जाता है
आज सुखाड़ रुलाता तो कल सावन बरसाता है ।
प्रभात की हर बेला तम को देती मात है
पर कटती नहीं मेरी बड़ी लम्बी रात है ।

भीड़ भरी संगत भी दिल को लुभाती नहीं
शब्दों के तीर चलते कभी खुद से खुद को बचाती।
 तोड़ हर संशय बना लो अपनी कस्तूरी मेरे मृग
प्रेम का दरिया बह उठे ,मैं गुलाब तुम भृंग ।

जो तुम चाँद होते अम्बर की सुनी काली रात का
पागल प्रेमी सी उठती - गिरती बन ज्वार समंदर का ।
साहिल पर जब पसर जाऊँ तुम किरण जाल फैलाना
स्पर्श आह्लाद अमिट होगा पराकाष्ठा प्रेम का दिखलाना ।

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