नीलकंठ तुम कहलाते हो
दूब के गलीचे की मैं शबनम हूँ
बन रवि - किरण तुम आते हो ।
पल भर में ,विलीन हो जाती हूँ
तुम एकत्व कर ,विस्तार मुझे दिलाते हो ।
हरसिंगार की महक बन मैं इठलाती हूँ
बन हवा का झोंका तुम आते हो ।
उड़कर मैं ,क्षण में घुल जाती हूँ
तुम आत्मसात कर ,अस्तित्व बोध कराते हो ।
ईशतुल्य नहीं मैं ,नश्वर जीवन में पूर्ण
आह्लादित कर मुझको ,आत्म -तुष्टि तुम पाते हो ।
चाहे रखो शीर्ष पर ,चाहे बना दो तृण
गरलपान करते मेरे लिए ,नीलकंठ तुम कहलाते हो ।
भला क्यूँ मैं चाहूँ गुरु ज्ञान
मुक्तिबोध तुम दिलाते हो ।
आत्मा का परमात्मा से मिलन
वह परमानन्द रोज़ कराते हो ।
देह्लोक की परिधि में ही
अहसास अलौकिक तुम कराते हो ।
इसी एकांश को आतुर मैं ,तुम ही
जीव वसन बारम्बार पहनाते हो ।
उड़कर मैं ,क्षण में घुल जाती हूँ
तुम आत्मसात कर ,अस्तित्व बोध कराते हो ।
गहन ...बहुत ही सुंदर भाव ...
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना ...
बधाई एवं शुभकामनायें ....
अच्छी रचना ||
बधाई ||
हरसिंगार की महक बन मैं इठलाती हूँ
बन हवा का झोंका तुम आते हो ।
उड़कर मैं ,क्षण में घुल जाती हूँ
तुम आत्मसात कर ,अस्तित्व बोध कराते हो
बहुत सुन्दर.......