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    नीलकंठ तुम कहलाते हो


   दूब के गलीचे की मैं शबनम हूँ    
  बन रवि - किरण तुम आते हो ।
पल भर में ,विलीन हो जाती हूँ 
तुम एकत्व कर ,विस्तार मुझे दिलाते हो ।

हरसिंगार की महक बन मैं इठलाती हूँ 
बन हवा  का झोंका तुम आते हो ।
उड़कर मैं ,क्षण में घुल जाती हूँ 
तुम आत्मसात कर ,अस्तित्व बोध कराते हो ।

ईशतुल्य नहीं मैं ,नश्वर जीवन में पूर्ण 
आह्लादित कर मुझको ,आत्म -तुष्टि तुम पाते हो ।
चाहे रखो शीर्ष पर ,चाहे बना दो तृण
गरलपान करते मेरे लिए ,नीलकंठ तुम कहलाते हो ।

भला क्यूँ मैं चाहूँ गुरु ज्ञान 
मुक्तिबोध तुम दिलाते हो ।
आत्मा का परमात्मा से मिलन 
वह परमानन्द रोज़ कराते हो ।

देह्लोक की परिधि में ही 
अहसास अलौकिक तुम कराते हो ।
इसी एकांश को आतुर मैं ,तुम ही 
जीव वसन बारम्बार पहनाते हो ।

Anupama Tripathi  – (4 April 2012 at 11:12)  

उड़कर मैं ,क्षण में घुल जाती हूँ
तुम आत्मसात कर ,अस्तित्व बोध कराते हो ।
गहन ...बहुत ही सुंदर भाव ...
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना ...
बधाई एवं शुभकामनायें ....

रविकर  – (4 April 2012 at 20:18)  

अच्छी रचना ||
बधाई ||

ANULATA RAJ NAIR  – (5 April 2012 at 00:21)  

हरसिंगार की महक बन मैं इठलाती हूँ
बन हवा का झोंका तुम आते हो ।
उड़कर मैं ,क्षण में घुल जाती हूँ
तुम आत्मसात कर ,अस्तित्व बोध कराते हो

बहुत सुन्दर.......

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